भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काटने से पर / अश्वघोष
Kavita Kosh से
काटने से पर परिन्दों के समस्या हल न हो
देख तो इनके परों में फिर नया जंगल न हो
मैं पहाड़ो तक गया था दोस्तो ये देखने
घूमता प्यासा वहाँ मेरी तरह बादल न हो
तू जिसे आँसू समझकर हँस रहा है व्यर्थ में
देख तो उसके ज़िगर में जज़्ब गंगाजल न को
उसकी मुठ्ठी बन्द है अहसास पत्थर का न कर
क्या खबर उसमें कहीं इक छटपटाता पल न हो
हादसा जब हो चुका तो लाज़मी थीं चुप्पियाँ
क्योंकि शासन चाहता था शहर में हलचल न हो