भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काटै छै बाघऽ रं रात / खुशीलाल मंजर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे हो मीता, की कहियौं आय
बसलऽ घऽर उजड़लऽ जाय
बड़ी अरमानऽ सें छाती लगाय
अकासऽ सें चानऽ केॅ लेलां बोलाय
सोची केॅ लानलां होतऽ इंजोर
कहियौ नै अन्हरिया रऽ देखबौ भोर
बहू तेॅ मेघेॅ झांपलेॅ जाय
हे हो मीता, की कहियौ आय

मनऽ के असरा मने में रहलऽ
छुछछे जिनगी बेरथ भेलऽ
केकरा सें करबऽ दिलऽ रऽ बात
काटै लेॅ दौड़ै छै बाघऽ रं रात
फाटी जाय धरती तेॅ जइयै समाय
हे हो मीता, की कहियौं आय

दुनियाँ के की हाल पूछ छऽ
केकरऽ केकरऽ बात करै छऽ
सभ्भे छै स्वारथऽ सें भरलऽ
जरी गेलै जूनां ऐठै छै धरलऽ
कखनू किरिया कखनू हाय
हे हो मीता की कहियौं आय