कात्यायनी की टिप्पणी और शशि की कविताएँ / शशिप्रकाश
एक राजनीतिक कार्यकर्ता की प्रेम कविताएँ
आखिरकार मैंने ढूँढ़ ही लिया ! क़रीब दस या कुछ अधिक कविताएँ तो अभी भी नहीं मिलीं I शायद नष्ट हो गईं या दशकों के बीते समय के दौरान, शहर और ठिकाना बदलते रहने के दौरान कहीं खो गईं I हो सकता है, फिर कभी मिल भी जाएँ ! पुराने काग़ज़-पत्तर खँगालने का काम अभी जारी है !
ये कविताएँ दरअसल कविताओं के रूप में सार्वजनिक करने के लिए लिखी ही नहीं गई थीं I ये प्रेमपत्र हैं जो आज से चार दशक से भी अधिक समय पहले सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाले एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने शहर में रह रही अपनी जीवन-साथी को लिखे थे I आज किसी निजी प्रसंग से अलग, इनके साहित्यिक मूल्य के नाते इन्हें पढ़ा जा सकता है, इसलिए मैं इन्हें यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ ! ! इन प्रेम कविताओं में कहीं प्रेम की पार्श्वभूमि में राजनीति मौजूद है तो कहीं राजनीति के नेपथ्य में प्रेम ! लेकिन एक सुस्पष्ट जीवन-दृष्टि की मौज़ूदगी सार्वत्रिक है ! सादगी में इनका सौन्दर्य है ! इनमें नक़ली कला या आकाशीय अलौकिक रूमानियत की बेलबूटेदार कढ़ाई कत्तई नहीं है I ये कठोर यथार्थ की पथरीली ज़मीन पर खड़ी प्रेम कविताएँ हैं, जिनकी सौन्दर्य-दृष्टि चालू चलन से आज भी अलग प्रतीत होती है I
इनमें से अधिकांश कविताएँ 1981 की हैं, जनवरी से दिसम्बर महीने के बीच की I कुछ कविताएँ 1982 की हैं I ’82 की अधिकांश कविताएँ मिल न सकीं I हमलोगों के राजनीतिक साहचर्य और प्रेम-स्फुटन के एक वर्ष बाद जब हम एक-दूसरे के जीवन-साथी बने, उसके चार माह बाद ही का० शशि गाँवों में राजनीतिक काम संगठित करने चले गए I उसके बाद तीन वर्षों का समय ऐसा था, जब हमारी मुलाक़ातें कभी हफ़्ते-दस दिन के लिए हुआ करतीं थीं, तो कभी कुछ घंटों के लिए I उनके कार्यक्षेत्र से कुछ कामरेडों का आना-जाना होता था, तो हालचाल मिलता रहता था I मैंने तो उस बीच शशि को कुछ रूमानी भावुकता और शिक़ायतों भरी चिट्ठियाँ लिखीं होंगीं, लेकिन शशि ने मुझे कभी प्रेम-पत्रों की भाषा में कुछ नहीं लिखा I वह, अक्सर स्कूली अभ्यास-पुस्तिका के फाड़े हुए पन्नों पर, कवितानुमा कुछ घसीटकर भेज दिया करते थे I बाद में मुझे लगा कि ये स्वतन्त्र रूप से सुन्दर और आत्मीय कविताएँ हैं I और अभी मुझे लगा कि इनको कविता के उन सुधी और तरलहृदय पाठकों को पढ़वाना भी उचित होगा जो आज के छद्मों के घटाटोप में भी ईमानदार वाम चेतना से सम्पन्न हैं और कर्मनिष्ठ हैं !
वे दिन अलग से मेरे लिए कठिन जीवन और कठिन संघर्षों के दिन थे जिस दौरान मेरी राजनीतिक चेतना विकसित हुई और सक्रियता बढ़ी I रंगकर्मी की भूमिका से अलग मैंने छात्रों और शहरी ग़रीब आबादी की बस्तियों में कुछ काम भी शुरू किया ! लेकिन कविता लिखना तब मेरे लिए लगभग एक जादुई काम था I 1986 में जब मैंने कविताएँ लिखनी शुरू किया तो उनके पीछे निराला, शमशेर, मुक्तिबोध, त्रिलोचन और ’70 के दशक के चर्चित वाम कवियों तथा नाज़िम हिकमत, नेरूदा आदि की बार-बार पढ़ी जाने वाली कविताओं के साथ-साथ कहीं न कहीं चिट्ठियों या व्यक्तिगत सन्देशों के रूप में भेजी गई इन कविताओं या कवितानुमा पंक्तियों की भी ज़रूर एक भूमिका थी I
बहरहाल, अब आप कविताएँ पढ़िए ! इन्हें शीर्षक मैंने दिए हैं !
1. अपने साथ कुछ समय
इरनी के ताल पर
उड़ रहे हैं जल-पक्षी I
दूर से कभी बादलों के
सफ़ेद-भूरे-साँवले टुकड़ों की तरह,
कभी कपास के फाहों की तरह,
कभी लहराती हुई रंगीन साड़ियों की तरह
नज़र आते हैं I
निचाट बंजर खेतों और
बबूल के जंगलों के बीच से होकर
यहाँ तक पहुँचा हूँ I
झोले पर सर टिकाये
सोऊँगा कुछ देर I
फिर वापस लौटूँगा
किसी और रास्ते से होकर I
कल कोई नया रास्ता ढूँढ़कर
किसी सुन्दर दृश्य तक जाऊँगा I
नए सपनों के लिए
कोई नींद ढूँढूँगा
और तुम्हें याद करने का
कोई नया तरीक़ा I
2. प्यार की द्वन्द्वात्मकता
उसी धारा में हम फिर से नहीं उतर सकते
जिसमें कल तैरते रहे थे I
हर बार जब हम उतरते हैं फिर-फिर
बहती हुई धारा में
तो अतीत की स्मृतियाँ भी साथ होती हैं I
स्मृतियाँ ही परिचय का आभास देती हैं
और नएपन का भी I
बीच में प्रतीक्षा होती है
सपनों से लदी-फदी I
3. हम-तुम
कम से कम
कल्पना तो कर ही सकते हैं
कभी-कभी किशोर-वय प्रेमियों की तरह
कि कभी हम-तुम होंगे
सुदूर वन-प्रान्तर के
निर्भीक हिरनों की तरह I
कि हम-तुम कभी होंगे
साथ-साथ उगते-छिपते
दो तारों की तरह I
कि हम-तुम होंगे
एक ही दिल के दो हिस्से I
हमारा प्यार
एक ईमानदार आदमी के
पसीने की तरह होगा,
मासूम होगा उसकी पत्नी के
सपनों की तरह,
सदियों के सताए गए लोगों के
विद्रोह सा उद्दाम होगा
उसका आवेग I
और, कितना सुन्दर होगा
वह जीवन
तमाम कठिनाइयों के बीच
एक स्वाभिमान छोड़कर
सबकुछ खोने के बाद !
आओ, कुछ ऐसी कल्पनाएँ करें
क्योंकि जीवन के हर नए यथार्थ के
निर्माण के पीछे कल्पना की
भूमिका होती है और
बीहड़ कठिनाइयों से गुज़रने के बाद ही
एक नया सौन्दर्यानुभव
हासिल होता है I
4. वायदा
इस काव्यात्मक लेकिन दुर्द्धर्ष संघर्ष में
हम दोनों में से
जो भी पहले मरेगा,
वह दूसरे का साहस और
स्वाभिमान बनेगा I
दिल में अधिक नहीं,
एक मीठी टीस की पतली लकीर जितनी
जगह लेकर बस जाएगा
और दूसरा जिएगा
उस समय को
जो उसे हासिल होगा
फिर से शुरू करते हुए ज़िन्दगी
और अपने लक्ष्य और अपने लोगों को
उतना ही प्यार करते हुए I
5. दस्तानों का जोड़ा
प्रिय !
तुम्हारा दिया हुआ दस्तानों का जोड़ा
जो खो गया, खोकर
अधिक दिलाता है तुम्हारी याद !
खो गया कहीं वह
किसी वीरान-सुनसान बस-अड्डे पर
जाड़े की रात काटते हुए,
किसी स्वप्न-विहीन नींद में,
या शायद बेहाली में कुछ सोचते,
उदास होते किसी समय में I
कैसे कहूँ कि अफ़सोस नहीं है,
लेकिन एक बात तुम्हें बतानी है कि
तुम्हारा मेरे लिए बुना हुआ
ऊनी दस्तानों का जोड़ा
खो गया कहीं
और यह कि अब भी मैं तुम्हें
बहुत याद करता हूँ
और बहुत प्यार करता हूँ I
याद हैं वे सभी अन्तरंग क्षण,
भूल गए हैं तो सिर्फ़ वे सपने
जिनमें यह दुनिया
उपस्थित नहीं होती थी
और खो गए हैं
तुम्हारे दिए हुए दस्ताने !
प्रिय !
यहाँ तो बहुत सारी निजी चीज़ें भी
साझी हैं हम सभी साथियों के बीच
अभाव की मजबूरी में’
जैसेकि साबुन की घिसी हुई बट्टी,
तेल की शीशी
और कुरते-पजामे भी कभी-कभी I
साथियों में से कइयों ने तो
दस्ताने ही नहीं, बहुत कुछ खोया है
अबतक की छोटी सी,
एकसाथ तुच्छ और क़ीमती ज़िन्दगी में I
कुछ ने तो कभी देखा ही नहीं है
प्यार से बुना दस्तानों का जोड़ा.
देखा ही नहीं है ज़िन्दगी का बहुत-कुछ I
उन्हें मैं तुम्हारे बारे में बताता हूँ
तुम्हारी दी हुई चीज़ों को और फूलों को
अब भी याद रखता हूँ I
भूल गया हूँ तो, बस, उन्हें
किताबों में दबाकर रखना
और खो दिए हैं
तुम्हारे दिए हुए दस्ताने I
प्रिय !
यहाँ यादें हम सबकी धरोहर हैं
माँ से, पिताजी से,
छुन्नी-मुन्नी सी बहनों से जुड़ी हुई
और हम सब साथियों की
एक ही धरोहर है,
अलग नहीं हैं यादें,
मिल गए हैं सब रंग,
सभी ध्वनियाँ और आकृतियाँ,
मिल गई हैं सब लोरियाँ,
सभी मचलती-तुतलाती बोलियाँ I
नहीं है कोई अलबम हमारे पास
पर याद है
तुम्हारे प्यार करने का एक-एक ढंग,
तुमसे हुई एक-एक तकरार I
खो गया है सिर्फ़
हमारी-तुम्हारी तस्वीरों का अलबम
और खो गए हैं
तुम्हारे दिए हुए दस्ताने I
प्रिय !
इस अभागे देश और अपने लोगों के बारे में
अपने स्फुट विचारों के बारे में
सोचते हुए
नहीं होता हूँ तुमसे
एक क्षण को भी अलग I
पर नहीं हो पाता हूँ
कलात्मक नक़्क़ाशीदार ग़मले में क़ैद
तुम्हारा सबसे पसन्दीदा फूल
(शायद तुम भी अब ऐसा नहीं चाहोगी)
और मुझे अब कोई भी शर्म नहीं है
कि देश और अपने लोगों के बारे में
अपनी भावनाओं को
बड़ी से बड़ी भीड़ में बयान कर दूँ
और इस दौरान अगर गला भी रुंध जाए
और आँसू भी छलक पड़ें
तो भी कोई शर्म नहीं I
और जीना चाहता हूँ इसी तरह,
कठिनतम चुनौतियों भरा जीवन
विपदाग्रस्त अपने लोगों के बीच,
तुम्हारी छाती पर कभी-कभार सिर टिकाने के
विरल क्षणों की
सुखद अनुभूतियों के साथ I
भूल गया हूँ तो, बस,
मादकतम प्यार की घड़ियों में भी
यह कहना कि
तुम्हारे साथ मरने को जी चाहता है
और खो गए हैं
तुम्हारे दिए हुए दस्ताने I
प्रिय !
खड़े होकर दुनिया भर के
बीहड़ में खिले फूलों जैसे बच्चों के साथ
तुम्हें देखता हूँ कल्पना में I
इन्हीं बच्चों में होगा
मेरी-तुम्हारी कल्पना का वह बच्चा
जिसके बारे में हमलोगों ने इतनी बातें की थीं कि
वह मूर्त हो चुका था
हमारी आँखों के सामने I
अब भी बेइन्तहा चाहता हूँ
उस बच्चे को, तुम्हारी ही तरह,
अपनी जान से बढ़कर I
पृथ्वी के सारे बच्चों के साथ
घुल-मिल गया है उसका चेहरा
और खो गए हैं
तुम्हारे दिए हुए दस्ताने I
6. सोचता हूँ
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि
सोचता हूँ एक अहमक की तरह कि
तब भी क्यों धड़कता है दिल
जब इसपर तुम्हारा सिर नहीं टिका होता I
उँगलियों में हरक़त
उस समय भी क्यों होती है
जब ये तुम्हारे बालों में
नहीं फिरा करतीं I
आँखें शून्य में क्यों घूरती हैं एकटक,
जब वहाँ नहीं भी होती हैं
दुनिया की सबसे सुन्दर आँखें !
इसलिए, शायद इसलिए कि
अभी और भी सुन्दर होना है
इस ज़िन्दगी को
और भी अधिक प्यार से भरी हुई,
दुनिया की तमाम बदसूरती और नफ़रत को
चुनौती देती हुई I
और सोचता हूँ, इस सुन्दर चाहत का,
इस अमिट प्यास का बने रहना ही
प्यार की बुनियादी शर्त है और
जीवन के पुनर्नवा होते रहने की भी I
यही तो वह प्यार है
जिसके लिए हम जीते हैं, लड़ते हैं,
लगा देते हैं
पूरी ज़िन्दगी दाँव पर
और जिसकी सबके लिए कामना करते हैं
दिल की पूरी गहराई से !
7. दुखान्त
अक्सर
एक बेहतरीन प्रेम की कहानी
या तो दुखान्तिका होती है
या काल्पनिक I
इस दुनिया में
अक्सर नहीं होता
सफलता का मेल
एक सुन्दर प्रेम की कहानी से I
एक सुन्दर प्रेम की कहानी
अक्सर केवल यादों में रह जाती है
छाती में बाईं ओर
उठती रहती टीस की तरह
याद दिलाते हुए गर्व के साथ
एक सच्चे, सीधे-सादे इनसान को कि
उसने ईमानदारी से प्यार किया,
उसीके लिए जिया,
उसीके लिए सहा उसका दुखान्त
और गर्व के साथ
यह अहसास देते हुए कि
वह अब भी है इस निष्ठुर कठिन दुनिया में
ईमानदार इनसान,
लड़ सकता है फिर भी
वैसे ही प्यार के ख़ातिर
या उस जैसी ही
तमाम सुन्दर चीज़ों की ख़ातिर,
कर सकता है अपार धीरज से
अनथक इन्तज़ार
पूरी उम्मीदों के साथ —
तभी तो अभी भी
यहाँ छाती में बाईं तरफ
धड़कते हुए एक बेहद मज़बूत दिल में
उठती हैं
मीठे दर्द की लहरें,
दिमाग़ में सुरक्षित रहती हैं
सारी यादें !
और हम अभी भी
प्यार करने की पूरी ताक़त रखते हैं
समझौतों भरी,
तमाम क्षुद्र, भौतिक सुखों से भरी
इस दुनिया में I
हम प्यार की इस अविराम खोजी यात्रा में
हर दिन, हर पल
कामयाब रहेंगे
इस विश्वास के साथ कि
पृथ्वी की सबसे सुन्दर
प्रेम की कविता
अभी लिखी जानी बाक़ी है I
न्याय और सुन्दरता और प्यार से भरी
एक दुनिया की चाहत लिए दिल में
हम लड़ेंगे
इतिहास द्वारा तय किए गए मोर्चे पर,
जिएँगे-मरेंगे और प्यार करेंगे
उसी दिन के लिए
तड़पते हुए
रात-दिन !
8. अन्धेरे दिनों में प्यार
नागफनी के जंगलों के बीच से
बहती रहती है
एक दुबली-पतली नदी
मेरे सपनों में I
मौन-अचल पड़कर
इसकी जलधार में,
बस, बहते ही जाना चाहता हूँ
इसकी स्निग्ध-धवल धार में I
क्यों इतनी कड़वी है ज़िन्दगी
हमारे आसपास,
इतनी बेरंग और उदास क्यों है ?
जैसेकि लोगों की एक-एक साँस पर
दुस्वप्नों का कोई बोझ लदा हो I
बीच-बीच में
दुनिया भर की थकान ढोते
खेत से लौटे बैल की तरह
पहुँच जाना चाहता हूँ
तृषित, इस जलधार तक जो मेरा प्यार है,
बहता रहता है शान्त
नागफनी के जंगलों से होकर
चुपचाप !
9. इस सदी का अन्त
सूरज की रोशनी को ढँके हुए
बादलों में चमकेगा
चाँदी की किनारी की तरह
इस सदी का अन्त
क़र्ज़-व्यापार-मुनाफ़ा
लूट और नफ़रत की क़ब्र पर I
पौ फटने की तरह
खुलेगी नई सदी
एकदम तुम्हारी आँखों की तरह,
तुम्हारे हाथों की तरह सक्रिय,
उनके मादक स्पर्श से
प्यार भरे समय में I
तबतक
हम इस नरक-सी ज़िन्दगी के ख़िलाफ़
बाग़ी होकर जिएँगे,
बेइन्तहा
एक-दूसरे को प्यार करने के
इन्तज़ार में I
बस, व्यस्त जीते रहेंगे
आगे भी इसी इन्तज़ार में,
गुज़र जाएँगे इसी इन्तज़ार में
अगली पीढ़ी की ख़ातिर
उतना ही,
उनके सुखद भविष्य के लिए
उतना ही,
जितना
अपने स्वाभिमानी वर्त्तमान की ख़ातिर,
कठिनतम दिनों में भी
एक सच्चा इनसान बने रहने के
आत्मगौरव की ख़ातिर !
10. हलफ़नामा
यह तो नहीं कहूँगा कि
अपने उसूलों की तरह,
अपने आदर्शों की तरह,
अपने विचारों की तरह
प्यार किया
लेकिन मैंने अपने उसूलों, आदर्शों और विचारों के साथ
जीते हुए
तुमसे प्यार किया I
यह तो नहीं कहूँगा कि
वसन्त की तरह
तुम्हें प्यार किया,
लेकिन पतझड़ के दिनों में भी मैंने
तुमसे वसन्त के दिनों जैसा ही प्यार किया I
यह तो नहीं कहूँगा कि
अपनी सबसे प्रिय स्मृतियों और
सपनों की तरह
तुम्हें प्यार किया,
लेकिन जब भी अपनी
सबसे आत्मीय स्मृतियों और
सपनों के साथ था
तो तुम्हारे साथ-साथ था I
मैंने तुम्हारी अनुपस्थिति में भी
तुम्हें तुम्हारी उपस्थिति की तरह
प्यार किया
जब भी तुम्हें याद किया !
11. अन्धेरे से होकर सफ़र करते हुए
इतिहास के बेहद अन्धेरे दौरों में
प्यार को संघर्ष से,
जीने की चाहत को
मौत के जोखिमों से,
नींद को हाड़तोड़ श्रम से और
दिमाग़ की नसों के चिटखने की हद तक
तनाव देने वाले विचार-मंथन से,
हृदय की कोमलता को
फ़ैसलाकुन होने की कठोरता से
अलगाकर देख पाना
असम्भव-सा होता है !
12. अगर ऐसा होता ...
अगर प्यार को
आसानी से भाषा मिल जाती
अभिव्यक्ति के लिए,
और सौन्दर्य को उसकी वास्तविक पहचान,
अगर वसन्त को हमेशा
वांछित रंग मिल जाते,
अगर उदासी को राहत देने वाली
एक लम्बी सांस
आसानी से नसीब हो जाती,
अगर प्रतीक्षा को अपना
सहज अन्त मिल जाता,
अगर परिचय को तुरन्त
विश्वास मिल जाता,
अगर लहरों को बिन बुलाए
तूफ़ानी हवाएँ मिल जातीं
और पंखों को
बिना कठिन कोशिशों के आकाश,
और अगर विचार को
बिना मशक्क़त के
क्षितिज मिल जाता
तो फिर जीवन आकस्मिकता के सौन्दर्य से,
श्रम और संघर्ष के सौन्दर्य को
और असाध्यप्राय को साधने की विरल अनुभूति से
परिचित न हो पाता
और लोग एक ख़ूबसूरत भविष्य के बारे में,
ज़िन्दगी की तमाम ख़ूबसूरती और
तमाम ख़ूबसूरत चीज़ों के बारे में
उम्मीदों के साथ,
साहस और हठ के साथ
और हृदय की सारी कल्पनाशीलता के साथ
शायद ही सोच पाते !
13.
प्यार ऐसे नहीं किया जाता
जैसे ज्यामिति का कोई
प्रमेय सिद्ध किया जा रहा हो !
प्यार तो ऐसा होता है जैसे
इस समय, इस रात,
प्यार में मर जाओ
और जलकर राख हो जाओ
और कल फिर राख से जनम लेकर
दुनिया को और ख़ुद को बदलने के काम में
पूरी लगन और तल्लीनता के साथ
जुट जाओ !
14.
और यह लो !
मैं ख़ुश हुआ तुम्हारे लिए ।
देखो, मैं उदास हूँ
तुम्हारे लिए ।
और यह देखो, सचमुच
मैं जिया तुम्हारे लिए
और मरा तुम्हारे लिए ।
मैं तुम्हारी उत्कट कामना से
सराबोर हूँ प्रिये !
चलो, ऐसा करता हूँ,
इस समय मैं मर जाता हूँ तुम्हारे लिए ।
कल सुबह फिर से जनम लेकर
बहुत सारे काम निपटाने होंगे ।
लम्बित काम बहुत तनाव
पैदा करते हैं !
15.
कि जैसे अदृश्य में जीवन-दृश्य
कि जैसे समन्दर में आग
कि जैसे बेतुके समय की तुक
कि जैसे जागृति में स्वप्न
कि जैसे सामान्यता में सम्मोहन
कि जैसे मरुथल में हरीतिमा
कि जैसे अर्थहीनता का मर्म
कि जैसे निर्वात में साँस
यूँ मिलना होगा फिर
कि जैसे कभी जुदा ही न हुए हों
कि जैसे जुदा ही न होना हो कभी
कि जैसे बहुत कुछ
कि जैसे कुछ भी तो नहीं
16.
अगर मुझसे पूछो तो कहूँगा
प्यार है हमेशा एक शुरुआत की तरह
एकदम अमूर्त विचारों में साझेदारी की तरह
एक साथ होना बहुतों के बीच की तरह
हमेशा आकस्मिकता और अप्रत्याशित से भरा हुआ
सन्नाटे में चौंकाते हुए पास के झुरमुट से
अचानक उड़ जाने वाले पक्षी की तरह
एकदम भविष्य के जीवन की मौलिक परिकल्पना की तरह
ठोस और वास्तविक
और मन में पलते द्वन्द्व में
सही पहलू की जीत की तरह
एक जीवित ऊर्जस्वी हठ की तरह
17.
प्यार में जीवन के द्वन्द्व हैं सघन
जैसे कला मनुष्यता के द्वन्द्वों का प्रतिबिम्बन है ।
प्यार केवल मेल है
यह सोचना एक भ्रम है
मिथ्या चेतना का खेल है ।
प्यार भी विरुद्धों का टकराव और सामंजस्य है ।
प्यार का अविरल प्रवाह है
जीवन के अन्तरविरोधों का
मित्रतापूर्ण दायरे में हल होते रहना ।
अगर हल न किए जाएँ
निरन्तर सचेतन प्रयासों से
तो ये मित्रतापूर्ण दायरे का
अतिक्रमण कर जाते हैं
और शत्रुतापूर्ण दायरे में चले जाते हैं ।
इसीलिए ऐसा होता है कि
दो भूतपूर्व प्रेमी अरसे बाद
कहीं मिलते हैं और यह सोचकर
आश्चर्य से भर जाते हैं कि आखिर
भला कैसे वे कभी
एक-दूसरे के प्यार में जा पड़े थे
जबकि न तो गाँजा पीते थे
और न अफ़ीम चाटते थे ।
18.
हर बार की तरह इस बार भी
जब मिलेंगे
तो बहुत सारी गंभीर चर्चाएँ और लम्बी बहसें करने,
और कुछ योजनाएँ बनाने
और कुछ चिन्ताएँ शेयर करने
और कुछ लम्बित मतभेद सुलटाने के बाद,
हम कुछ देर, नहीं बल्कि घंटों तक,
एकदम बेवकूफ़ों जैसी
बेसिर-पैर की, बेतुकी बातें करेंगे,
बावलों की तरह बात-बेबात हँसेंगे,
कैरम और लूडो खेलेंगे,
राजकपूर की फ़िल्मों के गाने गाएँगे
और 'बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु'
और 'चित्रा जाम्बोरकर' जैसी
कई कविताएँ पढ़ेंगे,
और अपनी अहमक़ाना हरकतों से
एक दूसरे को हैरत में डाल देंगे
और फिर थोड़ी और सादगी,
थोड़ी और निश्छलता और तरलता,
थोड़ी और ताज़गी लेकर
बचपन और कैशोर्य की यात्रा से वापस
इतिहास के इस धूसर, निचाट, उदास
और कठिन कालखण्ड में
युद्ध की खन्दकों में
लौट आएँगे !
19. इरनी का ताल : एक दृश्य-चित्र
ताल तल पर सलवटें जल की ।
श्याम छाया बादलों की काँपती उसपर ।
ले रहीं यादें हिलोरें ।
खुली है पुस्तक समय की ।
फड़फड़ाते पंख
सपने उड़ रहे हैं ।
घाव कोई रिस रहा है
टीस कोई जग रही है ।
20. बरखा झिरझिर बरस रही है...
जीवन पथ की घातें
सचमुच बहुत कठिन हैं I
खोजी यात्राएँ करनी है
दुर्गम और अचिह्नित पथ पर !
काले कोस अभी चलने हैं!
अब उनका क्या करें शोक
जो साथ नहीं हैं आज I
सबके अपने जीवन के हैं
गीत अलग और
अलग-अलग हैं साज I
नए सफ़र पर जब चलना है
बस, इतना ही काफ़ी होगा,
संग-साथ हों अपने सपने,
कुतुबनुमा हो इंगित करता दिशा
और हाँ, स्मृतियाँ हों कुछ
स्पर्शों की, मुस्कानों की,
दिए हाथ में हाथ
साथ चलते जाने की,
सुबह-सबेरे धुन्ध-कुहासे के
परदों में छुप जाने की,
इस निचाट में
हरियल से कुछ मैदानों की,
कुछ बसंत के बादल की
कुछ मादक थापें मादल की I
गत जीवन के समाहार से
निकली है जो आसव
ही दे रही पुनर्नवा विश्वास I
अभी थका सा बैठा हूँमैं टौंस किनारे
दुर्वासा ऋषि के आश्रम में I
नीरवता का भेद खोलते
पक्षी कुछ-कुछ बोल रहे हैं I
मानसून के पहले वाली
बरखा झिरझिर बरस रही है I
कविता के गहरे खदान से
खनिज खोदकर जो लाया था,
नहीं मिल रहे I
कहीं खो गए शायद !
उनको फिर से गह लेने को,
दरस-परस सा कर लेने को
आत्मा जैसे तरस रही है !
जैसे बाहर, वैसे भीतर
बरखा झिरझिर बरस रही है !
21. बरखा झिरझिर बरस रही है...
कैसी बारिश तीन दिनों से
झम्मझमाझम बरस रही है
ताल-तलैया उमड़ पड़े हैं
मौक़ा देख जेल से भागे क़ैदी जैसे
भरे लबालब पोखर से यूँ
रोहू-कतला भाग चली हैं
बाहर विस्तृत जलप्रांतर में
सिधरी, चेल्हवा, सिंघी, मांगुर,टेंगन, गरई और बरारी
चमक-चमककर उछल रही हैं
छुपम-छुपाई खेल रही हैं
गड़हों में, धनखर खेतों में
और गाँव की गलियों में भी
भटक रही हैं
उधर मेड़ पर प्रणयमग्न धामन का जोड़ा
नृत्य कर रहा
दादुर सारे चीख रहे हैं
बूढ़े पीपल की शाखों से
बच्चे जल में कूद रहे हैं
रोपनी की मज़दूरी करने
सभी औरतें निकल गई हैं
इस बस्ती में
दु:खों के अविरल प्रवाह में
छोटा सा ही सही मगर
यह व्यतिक्रम अतिशय सुखदायी है
इधर-उधर मैं घूम रहा हूँ
बारिश तन को भिगो रही है
बारिश मन को भिगो रही है
कविता सी जीवन की आभा
कौंध रही है
यादों में मैं भीग रहा हूँ
सोच रहा हूँ
किन संकेतों के माध्यम से
जीवन की इस चहल-पहल को
किसी तरह तुम तक पहुँचा दूँ
शशि प्रकाश (रचना काल : जनवरी 1981 से मार्च 1982 के दौरान)