कादम! फेनू आबी गेलै / कस्तूरी झा 'कोकिल'
कादम!
फेनूँ आबी गेलै-
जी जराबै वाला सावन।
खिड़की सें-
झलकै छै आकाश।
देखे छीयै-
घटा-बादलॅ रोॅ-
परिहास, खेल।
करेजा पर-
साँप लोटेॅ लागै छै।
घटा-बादल खेलै छै-
आँख मिचौनीं।
कखनूँ घटाँ पकड़ै छै-
दौड़ी केॅ बादलॅ केॅ-
कखनूँ बादलें आगू सें घेरी केॅ-
पकड़ै छै घटा केॅ।
दोनों-खिल-खिलाय केॅ-
हँसते-हँसते-
लोट-पोट हो जाय छै।
बिजलीं झटाक सें-
खींची लै छै फौटो।
तोरा बिना हम्में-
मारै छीयै-
छाती में मुक्का।
मतुर देखै छीयै
चारो दीश।
कोय देखै तेॅ नैं छै।
होय छे-
संकोच।
देखतै तेॅ-
की कहतै?
बुजुर्ग वियोगी लेल-
नैं हँसबऽ भला-
नैं कानबऽ भला।
याद पड़ै छै-
तोरा साथ वाला सावन
कत्ते सुहानों लागै छेलै।
जखनीं तोंय-
हरका साड़ी,
में चिंग अंगिया,
चूड़ियो हरे-हरे,
हरी-हरी विंदिया,
लगाय के काजल,
मुसकी मारै रहौ,
स्वर्ग उतरी जाय छेलै।
भरी आँख निहारी केॅ
निहाल होय जाय छेलियै।
आबेॅ वहीं यादें
मारै छै-
करेजा में सांग।