भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कादम्बरी / पृष्ठ 125 / दामोदर झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

34.
हमर किरण केर लगलासँ ओ व्यथा बहुत बढ़ि गेलनि
मरै काल दोषी बुझि हमरा विषम शाप दय देलनि।
जहिना हम विरहागि जरै छी तहिना तो हूँ जरबे
हमरहि सन चण्डाल चन्द्र, तो जन्म जन्ममे मरबे॥

35.
हम सुनितहि क्रोधे आन्हर भय किछु छन तम्भित रहलहुँ
काम पाठ पढ़ले अपनहिं तो तीव्रस्वर से कहलहुँ।
अपना दोषे तो मरैत छै हमरापर खिसिअयले
वेधै छथुन्ह काम तेजगर शर मोहि शाप दय देले॥

36.
बिनु बिचारने क्रोधक फलमे हमरहि संग तो रहबे
हमरहि जकाँ विरह पीड़ित भय जनम जन्ममे मरबे।
देलहुँ शाप हमहुँ किछ छनमे क्रोध शान्त भय गेले
हमरे वंश करीर महाश्वेता से सुमिरन भेले॥

37.
थिक जमाय अपमृत्यु मुइल बेटी विधवा भय गेले
से बिचारि हिनकर तनु आनल एतय सुरक्षित कयले।
श्वेतकेतु छथि जनक हिनक स्वर्वाप्सी परम तपोनिधि
जीवन दान अवश्य तपोबलसँ करताह जेना विधि॥

38.
जाउ अहाँ हुनका लग कहिअनु समाचार सब निश्छल
प्रतीकार निश्चय ओ करता जीवन देथिन्ह अविकल।
एतबा सुनि लगले हम उड़लहुँ धयलहुँ स्वर्गक मारग
शोक मग्न हम तेज गमन छल छनमे व्योमक पारग॥