कादम्बरी / पृष्ठ 14 / दामोदर झा
65.
ओ हमरा छन भरि विलोकि किछ विहुसल मुखसँ बजला
ई अपने कर्मक फल भोगथि एतबा कहि चुप रहला।
तीनू कालक दर्शन ओ नित करथि दिव्य चक्षु हिंसँ
कर राखल बदरामल कहि सन लखथि भवन ज्ञानहिंसँ॥
66.
सुनि मुनिजन हुनि बात मनहिं अजगुतमे पैसल
ऋषि जाबालि प्रभाव सबहिंकेर उर छल बैसल।
हाथ जोड़ि सब कहल कहू ई पहिने के छल
एहि दुर्गतिकेर हेतु पाप की ईकएने छल॥
67.
सुनलनि मुनि जन विनय अपन किछ मनमे गुनलनि
देखि सभक उत्कण्ठा दया द्रवित भय कहलनि।
गेला अस्तशिखर रवि दिनकेर काज उसारू
सब क्यो सन्ध्या पूजा सायंकृत्य सम्हारू॥
68.
स्वस्थचित्त भय आबि अपन आसन पर वैसू
पूर्व कथानक एकर बूझि अजगुतमे पैसू।
जे ई छलय जेना जे कयलक सबटा कहबे
कामुकताक श्रवण कय फल तम्मित भय रहबे॥
69.
कथाकालमे आनि एतय एकरो वैसायब
दू जन्मक सब पूर्व चरित्र एकर हम गायब।
इहो तखन निज पूर्व जन्मके सुमिरन करने
एहू जन्ममे पहिनहिं सन ज्ञानी भय रहते॥