भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कादम्बरी / पृष्ठ 51 / दामोदर झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

44.
छल रांयन्ध हमर मानस ई पत्र बहुत पख राति
मोह पाशमे बान्हल मनसिज तापय पुनि बहु भाँति।
बाज तरलिका, तोरा लग ओ कते काल धरि रहथुन
की सब तोरा बात कहलथुन कते दूर सङ एलथुन॥

45.
की हुनका तो वचन कहलहुन? कते निकटमे रहले
तोरा देहक परसो केलथुन की? से तँ नहि कहले।
एहिना बात तरलिकाके पुनि-पुनि दोहरओने कहते
वासर शेष बताहि जकाँ लगिचायल सुधि-बुधि रहिते॥

46.
द्वारपाल तहिखन कहलक ई समाचार छल लायल
वनमे जे मुनि बालक देखल द्वार एक छथि आयल।
कहथि हमर माला अनने छथि राजकुमारी जानह
हुनके शंके तुरत कहलिऐ एतय शीघ्र लय आनह॥

47.
गेल निदेश पाबि बाहर दोसर मुनि सुतके आनल
हुनके मित्र कपिंजल नामक लखि हम उत्सव मानल।
अपनहि हाथे आसन दय सादर हुनका बैसाओल
पयर धोय आँचरसँ पोछल पदजल माथ लगाओल॥

48.
ल्गहिं बैसि आकुलता केर कारण हुनका हम पूछल
किछ नहि कहलनि वारंवार तरलिका दिशि ओ ताकल।
हुनकर अभिप्राय बुझि कहलहुँ ई नहि आन हमर थिक
दूटा केवल अछि शरीर ई हमरे प्राणान्तर थिक॥