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कादम्बरी / पृष्ठ 55 / दामोदर झा

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64.
एतबा बात कपिंजल सुनिते भीड़क डर बहरयला
उत्तर केर प्रतीक्षा नहि कय नगरक बाहर अयला।
हुनकर दशा कपिंजलसँ सुनि चंचलमन भय रहलहुँ
माता अयली की सब कहलनि से हम किछ नहि जनलहुँ॥

65.
छोड़ि कमलिनीके मुरुझायल दिनपति कतहु पड़ायल
अपन सहोदर गरलहिं सँग लय पूर्ण कलाधर आयल।
कामक तेज बाणसँ चीरल विरहानलहिं जरायल
छट-पट करिते छलहुँ जेना रहु माछ सलिल बहरायल॥

66.
कहलहुँ भरल कण्ठसँ बाज तरलिका, एखन करू की
अपनो मानस बड़ आकुल अछि एहिना बैसि रहू की।
हमरा जे किछु हयल सहब विरहक हुतवहमे जरबे
किन्तु हुनक हमरा लय ई गति तकरा लय की करबे॥

67.
एक दिशि शास्त्र कुलक आचारो लज्जा गुरुजन डर अछि
दोसर दिशि वसन्त कुसुमायुध हिमकर विरह प्रखर अछि।
अपन मरण केर डर नहि अछि हमरा मुइने की खगते
पड़व घोर नरकहिं हमरा लय जँ ब्राह्मण तनु टगते॥

68.
किंकर्तव्यूविमूढ़ हमर मन नहि किछु निर्णय कयलक
मूर्छा आबि आँखि दुहु मुनलक देहहुँ भूमि सुतओलक।
धड़फड़ायके उठल तरलिका चानन घसल लगओलक
मुहपर सीचि सलिल शीतल पंखासँ होश करओलक॥