कादम्बरी / पृष्ठ 88 / दामोदर झा
5.
सुमिरनमे कादम्बरीक ई डबल रहथि दिवस ओ राति
मधुरो भोजन नहि रुचिकर हो दूरे रहथि गबैया जाति।
बस्त्राभूषणके के पूछय खान पीन देहस्थिति मात्र
यथभ्रष्ट करी सन हरदम मन व्याकुल शय्यापर गात्र॥
6.
हरिण युवक बागुरा फसल सन नहि बहरयबाकेर उपाय
दिनमे रातुक गुण सुमिरै छथि राति सर्पिणी जकाँ बुझाय।
भरल आँखि उत्तर दिशि देखथि छन छन मनमे सोचथि बात
राज्यक भार पिता सब तजलनि हमरे शिर सबटा आघात॥
7.
जँ दिन भरि माता नहि निरखथि होइते साँझ दूतपर दूत
सबटा प्रजा प्राण सन मानय नहि पालब तँ कहत कपूत।
वैशम्पायन ततहि बिराजय पूछब ककरा गुप्त विचार
चारू भाग जाल ओझरायल असमय मन्मथ कयल प्रहार॥
8.
केयूरकसँ जैखन सुनती घर उजाड़ि हम अयलहुँ भागि
कादम्बरी हृदय की गुनती हुनका मनमे लगतनि आगि।
उलहन पड़त महाश्वेताके केहन पुरुषके अनलह पास
अनकर हृदयक दुख नहि बूझय प्रीति जोड़िके कयल निराश॥
9.
कहती कलपि पत्रलेखाके की की अटपट से नहि जानि
ओहो ओतय की बात फुरओतै हमर दोष सब लेतै मानि।
छट्टी माङब कोना पितासँ अछि भय गेल असम्भव बात
धूनथि शिर एहिना भरि वासर जगले निशि भरि होइन परात॥