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कादम्बरी / पृष्ठ 95 / दामोदर झा

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40.
केयूरक उज्जयिनी केर वैभव देखय सुरराज समान
सोचय हमर स्वामिनी केर कयले पुरबिल तप छैनि महान।
कतय किंपुरुष देश हेमक टहिं पर कतय हिनक ई देश
ओतय पहुँचला हुनके भागे नहि ई दुर्लभे नरेश॥

41.
दिन भरि घूमय घोड़सवार संग नीक नीक जे सब छल ठाम
उज्जयिनी केर ठाठ बाठ सब देखय पाबय मन विश्राम।
किन्तु रातिमे चयन पाबय सोचय राजकुमारिक हाल
एम्हर क मरके व्याकुल देखय दूनू दिशि बूझल जंजाल॥

42.
एक दिन हाथ जोड़ि ओ कहलक कुमर, सुनू किछ बिनती मोर
नहि अपराध हृदयमे मान करय सतत उत्कण्ठा जोर।
अद्यावधि ओ जिविते हयती दोलायित मन होय उदास
हो आदेश जाइ हम आगू हूनका किछु देबनि आश्वास॥

43.
टपनहिं अहाँ स्वयं उद्यत छी जयबा लय अन्वेषि प्रकार
एतय निवासे हम की करबे रहने कोन हयत उपकार।
कहलनि कुमर नीक सोचल अछि आगू बढ़ू हयत बड़ काज
देखि अहाँके धैरज धरती हमरहुलय हयतनि अन्दाज॥

44.
हमहूँ अनुपद अयबे करबे जँ नहि हम राक्षस चण्डाल
जँ हम देव-पितर आराधल जँ हम अपन पिताकेर लाल।
अच्छोदक तट पहुँचल हमरा बूझू करू न किछु सन्देह
हमर मार्गके क्यो नहि रोकत जँ यमराज हरत नहि देह॥