कान्हा के इस देश में / मनोज चौहान
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कान्हा के इस देश में ,
क्यों गौ माता,
इतनी लाचार हो गई,
भिक्षुक बन,
खड़ी है वह,
गाँव और शहर की ,
हर दहलीज पर,
मात्र शांत करने,
उदर के भीतर,
धधकती ज्वाला को,
मगर अक्सर ,
मिलती है उसे धुत्कार,
कभी गृहणी, किसान,
या फिर ,
किसी फल और सब्जी,
बिक्रेता से l
माता का दर्जा देकर जिसे,
हम करते है गर्व,
अपनी संस्कृति पर,
मृत्युशैया पर पड़े मानव से,
करवाते हैं गौ दान,
इस उम्मीद में ,
कि तारेगी उसे वह,
भव सागर से l
जब तक देती है दूध वह ,
पाली जाती है नाजों से,
जब अक्षम हो जाती है,
देह उसकी ,
तो कर दी जाती है मुक्त ,
घर के बंधे खूंटे से,
कब तक इंसान आखिर,
प्रमाण देता रहेगा,
यूँ ही ,
स्वयं के ,
स्वार्थी और कपूत होने का l
गल्ली, सड़कों,
और चौराहों पर,
भटकने और,
जीवन यापन को,
मजबूर है वह,
और जब कोई ,
शराबी या अफीमची,
सरफिरा ट्रक ड्राईवर,
कर जाता है उसे चोटिल,
तो असहाय सी,
पड़ी रहती है वह,
सड़क के,
एक किनारे पर l
भूख और प्यास से,
बिलखती,
उपचार के अभाव में,
नासूर बन चुके,
संक्रमित घाव,
और गंध छोड़ती देह,
कर देती है बाध्य,
नाक ढांपने के लिए,
राहगीरों को l
रुग्न काया,
एक अंतराल के बाद,
क्षीण कर देती है,
उसकी जिजीविषा,
करुणामयी नेत्रों से,
देखती रहती है,
कह रही हो मानो,
हे इंसान !
क्या इसी दिन के लिए,
किया था तेरा पोषण,
अपने दूध से l
और फिर,
जीवन से संघर्ष करते हुए,
हार जाती है वह ,
एक दिन,
आँखें रह जाती है खुली,
मगर,
उड़ चुके होते हैं,
प्राण पखेरू,
दूर कहीं,
अनंत आकाश में