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कान्ह बर मेरे जीवन-प्रान / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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कान्ह बर मेरे जीवन-प्रान।
देखि रूप छूट्यौ जग सारौ, रह्यौ न कछु संधान॥
वे ही अब सब तन-मन मेरे, वे ही जीवन-जीवन।
 नयननि की पुतरी वे मेरी, वे ही हिय कौ स्पंदन॥
 मोहि सिख दैबे में सखि! क्यों तुम करौ समय बरबाद।
 रूप-सुधा पी भ‌ई बावरी हौं, टूटी मरजाद॥
 भूलि जाहु मो कूँ तुम सब अब, कुल की जानि कलंक।
 हौं हूँ परी रहूँ पगली ह्वै, प्रियतम के प्रिय अंक॥
 कट्यौ लोक-बंधन सब सहजहिं, रह्यौ न को‌उ परलोक।
 चरननि नित्य बसाय ल‌ई प्रिय, रह्यौ न चिंता-सोक॥
 पास रहूँ वा दूर, नित्य वे रहते मेरे पास।
 भयौ नित्य संबंध तिनहिं ते अमिट-‌अटूट-‌अनास॥