कान्ह हूँ सौं आन ही विधान करिबे कौं ब्रह्म
मधुपुरियान की चपल कँखियाँ चहैं ।
कहैं रतनाकर हसैं कै कहौं रोवैं अब
गगन-अथाह-थाह लेन मखियाँ चहैं ॥
अगुन-सगुन-फंद-बन्द निरवारन कौं
धारन कौं न्याय की नुकीली नखियाँ चहैं ॥
मोर-पँखियाँ कौ मौर-वारौ चारुं चाहन कौ
ऊधौ अँखियाँ चहैं न मोर-पँखियाँ चहैं ॥64॥