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कान्ह हूँ सौं आन ही विधान करिबै कौं ब्रह्म / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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कान्ह हूँ सौं आन ही विधान करिबे कौं ब्रह्म
मधुपुरियान की चपल कँखियाँ चहैं ।
कहैं रतनाकर हसैं कै कहौं रोवैं अब
गगन-अथाह-थाह लेन मखियाँ चहैं ॥
अगुन-सगुन-फंद-बन्द निरवारन कौं
धारन कौं न्याय की नुकीली नखियाँ चहैं ॥
मोर-पँखियाँ कौ मौर-वारौ चारुं चाहन कौ
ऊधौ अँखियाँ चहैं न मोर-पँखियाँ चहैं ॥64॥