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कान दीवारों के भी होते / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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बालगीत था लिखा रघु ने,
बैठ नदी के तीरे।
डरते-डरते बाथरूम में
गाया धीरे-धीरे।

था स्वभाव का वह संकोची,
बाहर कह ना पाया।
भनक न पड़ जाए लोगों को,
छुप-छुपकर था गाया।

यही गीत, पर जब मित्रो ने,
उछल-उछलकर गाया।
निकले बहुत छुपे रुस्तम हों' ,
कहकर उसे चिढ़ाया।

बाथरूम पर गौर किया तो,
अजब बात यह पाई।
दीवारों में कान लगे थे,
दिए साफ दिखलाई।
बात अचानक दादाजी की,
याद उसे तब आई।
' कान दीवारों के भी होते,
बिलकुल सच है भाई।'