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काफ़िर हुआ हूँ रिश्ता-ए-जुन्नार की क़सम / 'सिराज' औरंगाबादी
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काफ़िर हुआ हूँ रिश्ता-ए-जुन्नार की क़सम
तुझ जुल्फ़-ए-हलक़ा-दार के हर तार की क़सम
हरगिज़ मरीज़-ए-हिज्र कूँ बिन वस्ल नहीं इलाज
उस ख़ुश-अदा की नर्गिस-ए-बीमार की क़सम
उस गुल-बदन के काकुल-ए-पुर-पेच का ख़याल
ज़ुन्नार मुझ गले का हुआ हार की क़सम
तेरे भँवों की याद ने टुकड़े किया है दिल
है ज़ुल-फ़िकार-ए-हैदर-ए-कर्रार की क़सम
उम्मीद-वार-ए-चाह-ए-ज़नख़दान-ए-यार हूँ
मैं तिश्ना-लब हूँ शर्बत-ए-दीदार की क़सम
दरकार अगर हिना है मुझ आँखों में रख क़दम
है तुझ कूँ मेरे दीदा-ए-ख़ूँबार की क़सम
यकजा हुए हैं बुलबुल ओ परवाना ऐ ‘सिराज’
इस शमअ-रू के चीरा-ए-गुल-नार की क़सम