कामगार औरतें / मृदुला सिंह
ये प्रवासी कामगार औरतें
अपने हाथों रचती हैं
बड़े भवन स्कूल पुल अस्पताल
और न जाने क्या क्या
अपने लिए भी बना पाती हैं
परदेश में रहने लायक झोपड़ी
बरसाती, बोरे और खपच्चियों से
उठती हैं मुँह अंधेरे
झटपट बुहारती हैं घर
आलू और भात रांधती हैं
परिवार को खिलाने के सुख के आगे
भूल जाती हैं
तन से ज्यादा
मन पर पड़ी खरोंचों को
झोपड़ी की दरारों से रिसती आधी धूप में
यह अपनी खुशी का उजाला ढूँढती हैं
सोते नवजात को
बाँधती हैं पीठ पर
और निकल जाती हैं काम पर
दिन बिसरे जब छूट गया था
गांव कजरी फगुआ नाता-रिश्ता
रेत गिट्टी और सीमेंट के बीच
जिंदगी जब तप रही होती है
दिन ढले रोजी हाथ में आते ही
खिलखिलाती है क्षण भर
आंखों में उतर आते हैं
मुन्नी के लिए फ्रॉक
और मुन्ने के लिए टोपी
मर्द ने भी की है कुर्ते की ख्वाहिश
सास को चाहिए लुगरा
इनके मन का कुछ न कुछ
अपने मन से जोड़ लेती हैं
देवारी में खर्च कर देती हैं
सारे पैसे हाड़तोड़ मेहनत के
शराबी मर्द देता है गालियाँ दूसरे पहर तक
मुस्काती है दीये भर
ये कामगार स्त्रियाँ समेटती हैं
पुरानी साड़ी का आँचल
ढांप लेती है अधखुली छाती
छुपा लेती है अपना दुःख