कामना / अपर्णा अनेकवर्णा
हवाओं से झगड़ती.. रूठती..
रोती गिड़गिड़ाती.. 
अनन्त में खोए घरों.. 
अपनों.. का पता पूछती.. 
स्टेशनों चौराहों पर अक्सर 
अस्त-व्यस्त-सी भटकती-डोलती 
बावरियों को देखा है??
लगभग हर महानगर के 
आमो-ख़ास रास्तों.. नुक्कड़ पर..
बुझ गई आग के आस-पास 
देखा है न सिकुड़े बच्चों को..
राख में ख़ाक हुए मुस्तकबिल को 
हारी हुई उँगलियों से खंगालते रहते हैं 
मैं भी..
अपनी हथेलियों को यूँ ही देखा करती हूँ 
कब से.. लाख उलट-पुलट चुकी..
नेह की रेख मिलती ही नहीं 
कच्ची माटी की थी जब.. तूने 
तब खींची ही नहीं थी क्या.. 
मेरे रब जी??
कहाँ से लाऊँ.. पा जाऊँ.. 
चलूँ.. किसी टूटते सितारे से 
माँग लूँ एक टूटा टुकड़ा उसका..
काँच की किरचों से.. 
उसके नुकीले पैनेपन से
खुरच-खुरच बना लूँ वो रेख.. 
जिसे दुनिया 
'प्रेम की लकीर' कहती है
	
	