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कामयाब / उज्ज्वल भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
बार-बार मैं उस शख़्स को देखता हूँ :
कभी यहाँ, कभी वहाँ
उसके पैर थिरकते रहते हैं,
उसके होंठों पर मुस्कराहट रहती है,
मक्कार आँखों में
महान होने का दावा,
उसके पैरों के नीचे
ज़मीन नहीं, दलदल है।
दलदल में धँसा हुआ
वह ख़ुश है, बेहद ख़ुश है।
वह सोचता है,
वक़्त की धार को
उसने पहचान लिया है.
वक़्त ने उसे बेमानी बना दिया है।
और वह ख़ुश है, बेहद ख़ुश है।