काम-धनु पर खिंची रति-प्रत्यंचा / महेश चंद्र द्विवेदी
मधुशाला में तो आज बंदी का दिन है,
और किसी मसखरे ने
ठंडई मॆं भंग भी नहीं घोली है;
फिर क्यूँ आज सुरूर है ऐसा भरपूर
कि दो टाँग की सीढ़ी भी लगती है सलोनी
और लगती हर बनियाइन इक चोली है ?
वृंदावन में गोपिकाऒं ने
माखन के मलौटे हैं सब खुले छोड़ दिए
कृष्ण हैं कि
आज उन्हें कानी आँख भी न देख रहे;
क्यूँ उन्हें कदम्बों में भी दिखती है
बरसाने की राधा की सूरत भोली है?
चँहुदिश प्यार का कैसा प्रवाह है,
कि गौना तो गंगा का है,
पर छंगा को लगता अपना विवाह है;
पलंग पर लेटे
कल के जन्मे छौने तक को,
अपना ही पालना लगता पत्नी की डोली है?
भ्रमर भरमाए हुए
क्यारियों में भटक रहे,
पुष्प की पँखुड़ियों में
पकड़ जाने को मटक रहे,
क्यूँ उन्हें अप्रस्फुटित कली भी
लगती ज्यूँ पूर्णतः पराग-रस घोली है?
बुढ़ऊ को भी क्यूँ आज
साली-सलहज हैं लगती बड़ी प्यारी,
और वे भी बढ़-चढ़कर
खाँखर जीजा से कर रहीं हैं यारी;
छुटका देवर क्यूँ हो गया दिवाना,
कि भौजी की डाँट भी लगती ठिठोली है?
वसंत है बौराया हुआ
है छोड़ रहा अविरल अनंग-वाण,
ऐसी है उमंग और स्फूर्ति उनमें
कि मृत में भी भर दें प्राण;
कामधनु पर खिंची रति-प्रत्यँचा
उसने होली पर कब खोली है?