भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काम आसाँ हो तो दुश्वार बना लेता हूँ / शाज़ तमकनत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काम आसाँ हो तो दुश्वार बना लेता हूँ
राह चलता हूँ दीवार बना लेता हूँ

जादा-ए-शौक को वीराँ नहीं होने देता
रोज़ नक़्श-ए-क़दम-ए-यार बना लेता हूँ

यूँ के लहजा से नुमाया न हो हसरत कोई
एक पैराया-ए-इज़हार बना लेता हूँ

वही तस्वीर जिसे मैं ने बनाया सौ बार
वही तस्वीर फिर इक बार बना लेता हूँ

ऐ ख़ुशी ग़म की कसौटी पे परख लूँ तुझ को
ऐ वफ़ा आ तुझे मेयार बना लेता हूँ

हाए वो लोग जिन्हें गिनता था बे-गानों में
आज मिलते हैं ग़म-ख़्वार बना लेता हूँ

‘शाज़’ गर्दिश-गह-ए-अफ़्लाक-ए-तमन्ना मत पूछ
नौ-ब-नौ साबित-ओ-सय्यार बना लेता हूँ