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काम तरक़ीब से निकाल अपना / रविकांत अनमोल

ये ज़माना है कारसाज़ों का
काम तरकीब से निकाल अपना

काश उनका जवाब आ जाए
राह तकता है इक सवाल अपना

पैरहन हो गया है ख़ाबों का
दे गये थे जो तुम ख़्याल अपना

कितनी लंबी थीं हिज्र की रातें
कितना था मुख़्तसर विसाल अपना

यूँ न ख़ुद ही से बात हम करते
कोई होता जो हमख़्याल अपना

हमने हर दर की ठोकरें खाईं
हल नहीं हो सका सवाल अपना

बेख़ुदी ही सही मगर फिर भी
कुछ तो 'अनमोल' कर ख़्याल अपना