भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से / सालिम सलीम
Kavita Kosh से
काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
उस ने फिर मुझ को समेटा है परेशानी से
मुझ पे खुलता है तिरी याद का जब बाब-ए-तिलिस्म
तंग हो जाता हूँ एहसास-ए-फ़रावानी से
आख़िरश कौन है जो घूरता रहता है मुझे
देखता रहता हूँ आईने को हैरानी से
मेरी मिट्टी में कोई आग सी लग जाती है
जो भड़कती है तिरे छिड़के हुए पानी से
था मुझे ज़ोम कि मुश्किल से बंधी है मिरी ज़ात
मैं तो खुलता गया उस पर बड़ी आसानी से