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कायनात की हक़ीक़त / विमलेश शर्मा

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ख्वाबों के जंगल में
कोई गिलहरी आंखों से
अधबुने जुगनू सरीखे पल
चुप से रख जाता है
रेतीले कोरों पर
मौन गहराई में
अकस्मात् हुई किसी
पदचाप की धमक से
कोई पा लेता है
आब-ए-मुक़द्दस*
तो कहीं
कैलाशी शिव को
अपनी ही चौहद्दी में
जानते हो!
कौतूहल!
मौन से टूटा शब्द है
माथे पर एकाएक उग आया तिलक है
वो अव्यक्त होकर भी ज़ाहिर है
किसी दरवेश के भीतर का शायर है
और कुछ नहीं
बस्स! किसी
अजानी चेतना को झकझोर कर
मोती-सी सीपियों में यकायक
शफ़्फाक चमक पैदा होने का नाम है आश्चर्य!
और यों मूर्त से अमूर्त हो जाने को
हम कह देते हैं अक़सर
नेमत!
जादू!
रहस्य!
या कि कोई पहेली अबूझ!