भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कारगिल की चोटियों को नमन / संतलाल करुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे मेरे देश, अब तो घर हम कहाँ लौटेंगे
अब तो जी-जान से इस माटी की है आन हमें।

हाथ अब बहना के पीले न देख पाएँगे
माँ की ममता हमारी राह तरस जाएगी
गाँव का बरगद हमें सालों तक बिसूरेगा
चौक की नीम भी हर साल बरस जाएगी
हे मेरे देश, अब तुझ से प्यारा कोई नहीं
तोप-गोलो के मुँह पे होने का अभिमान हमें।

तुम तो लाहौर से भर-बाँह गले लग आए
उसने गलबाँही में सुनसान सरहदों को लिया
तुम तो भारत से धूप-दीप वहाँ लेके गए
उसने नापाक इरादों का कारवाँ जो दिया
हे मेरे देश, जिसने पीठ में छुरा घोंपा
उसकी छाती पे ध्वजा गाड़ने की शान हमें।

राह इस हमने क्या पाया क्या गवाँ के चले
खोया-पाया हिसाब जो भी तराजू पे बढ़े
मरना-जीना तो यहाँ देश के लिए होता
अब तो हाथों में लेके शीश हिमालय पे चढ़े
हे मेरे देश, कारगिल की चोटियों को नमन
इनकी ऊँचाई पे मर-मिटने का गुमान हमें।