कारगिल विजय के सेनानी / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
भारत माता के अमर पुत्र, कारगिल विजय के सेनानी,
सीमा के रक्षक अडिग वीर तुमको मेरे शतकोटि नमन।
जब शान्त हिमालय धधक उठा,
झरनों से ज्वालाएँ फूटीं।
जल उठा स्वर्ग फिर धरती का.
तब दिल्ली की निद्रा टूटी।
बज उठी भयंकर रण भेरी,
पत्थर-पत्थर हुँकार उठा।
केसर की क्यारी क्यारी से,
पौरुष का स्वर झंकार उठा।
कर उठा अग्नि की वृष्टि व्योम हो उठे दग्ध धरती गिरि वन।
लाहौर घोषणा की व्यापक,
चर्चा में उलझा था स्वदेश
चुपके-चुपके उस तरफ शत्रु,
घुस आया धर कर छद्म वेश।
नपाक पाक के मंसूबे,
जाहिर हो गये एक क्षण में।
पर मुँह की खानी पड़ी उसे,
अपने ही प्रायोजित रण में।
हारा फिर चैथी बार युद्ध भागा ले शेष प्राण का धन।
तुमने निज पौरुष से असंख्य
अरियों के मस्तक तोड़ दिये।
कारगिल, वटालिक, द्रास आदि
गिर शिखर शत्रु ने छोड़ दिये।
वे छद्मवेशधारी सैनिक
तुमने ही मार भगाये थे।
चोटी चोटी पर विजय केतु
तुमने चढ़कर फहराये थे।
पाकिस्तानी षड़यंत्र ध्वस्त कर तुमने किया पूर्ण निज प्रण।
यौवन का लहू बहा धोया
हिमगिर के माथे का कलंक।
अनगिन प्राणों के रत्न लुटा
कर दिया सुसज्जित राष्ट्र अंक।
गोदें सूनी हो गयीं किन्तु
गौरव से उन्नत हुआ भाल।
सो गये काल की गोदी में
बनकर दुश्मन के महाकाल।
कर रहा याद बलिदान राष्ट्र है, दृग-सनीर हम जन-गण-मन।
तुम आगे बढ़े राष्ट्र पीछे से,
हर-हर महादेव बोला
दुश्मन की गोली-गोली का,
बनकर जवाब छूटा गोला
हो गये अमर बलिदान वीर,
धरती का कण-कण कहता है
जिनके कारण सम्पूर्ण राष्ट्र,
दिन रात चैन से रहता है
अर्पित करता है राष्ट्र तुम्हें बद्धांजलि श्रद्धांजलि पावन।