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कारागृह / अनुभूति गुप्ता
Kavita Kosh से
बरसों से
कारा-गृह के
क़ैदी के मन को
नहीं छूती है,
यह सुनहरी धूप-
सलाखों के बीच से आती हुई।
बरसों से
कारण चाहे
जो कुछ भी रहा
क़ैदी के मन को
नहीं छूती है,
पीले-पीले मुलायम
पंखुड़ियों वाले
फूलों की गन्ध।
बरसों से
क़ैदी के मन को
नहीं छूती है,
मदहोश करने वाली
बलखाती-इठलाती हवा।
शायद,
छू भी नहीं पायेगी
आत्मा कभी
शरीर छोड़ने से पहले।