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कारीगर और मैं / प्रभात त्रिपाठी
Kavita Kosh से
चन्दन के काठ की क़लम जिसने बनाई
क्या उसे आता है लिखना ?
सोचा मैंने एक पल
लिखा मैंने एक शब्द
अपने मन में
जंगल जल गया कहीं दूर
बदहवास दौड़ा कारीगर
शहर की ओर
शहर तैयार था
बन्दूकों से लैस
उसने कारीगर से कहा
चुप रहो
चुपचाप करो अपना काम
मत लिखो, मत लिखो
अपना नाम
सचमूच गूँगे की तरह
एक शब्द बोले बिना
उसने बनाई क़लम
मैंने ख़रीदी
और दूसरे पल
अपनी सफ़ेद क़मीज में
शान से लटकाकर नई क़लम
चला गया
बन्दूकधारी को सैल्यूट मारने ।