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कार्तिक की एक सुबह / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
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कोई एक सुबह कार्तिक की
बालों, आँखों और चेहरे पर मेरे
गिरी थीं चंद बूँदें ओस की
शायद गौरैये ने झटका था अपने पंखों को
सामने ही पेड़ की शाखों पर तीन थे वे
ओस से भींगे
अपने पंखों को खिली धुप में सुखाते हुए
दूर तक पसरे नील के खेत सा था नीला आकाश; और
सूर्य? या फिर सिर्फ उसकी अनुभूति?
उड़ गये थे फिर वे
हमारी दुनिया से दूर अपने संसार की ओर
देखा है उसके बाद भी अनेक गौरैयों को
पर अब कहाँ हैं वे तीनों?