भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कार्तिक की भोर / मोहन अम्बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाज गई, बाज गई धड़कन की बाँसुरिया,
जन्मा यों गीत आज कातिक की भोर में।
चिड़ियों के पहले ही पनघट पर बोल गई,
संस्कृति की पायलिया,
पूजन के गीतों में नारी ने बात करी,
छलिया था साँवरिया,
उल्टा तब धरती का घूंघट उजियारे ने,
डुगिया से प्राण उड़े मदना की डोर में,
जन्मा यों गीत आज कातिक की भोर में।
देखी जब खेतों में अरवी के पत्तों पर,
लड़की-सी ओस खड़ी,
उसके मैं पास गया छूने की साध करी,
शरमाई ढुलक पड़ी,
तबसे यों शब्द-शब्द छंदों में झूल गया,
पलवाई नाव चले जैसे हिल्कोर में,
जन्मा यों गीत आज कातिक की भोर में।
नभ जैसी नखल जड़ी चुनरी की चाह दाब,
जागी जो रात-रात,
हलधर की वही प्रिया फसलों को देख प्रात
भूली वह दुखन बात,
लेकिन फिर दूख पड़ी उसकी जब दृष्टि गड़ी,
उषा की साड़ी की कंचन-सी कोर में,
जन्मा यों गीत आज कातिक की भोर में।