भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कार्य ही पूजा है / हरीशचन्द्र पाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह एक नीतिवाक्य है

कारख़ाने के बाहर गेट के ऐन बग़ल में टँगा है यह
ये काम लेनेवालों की ओर से काम करनेवालों के लिए है

गो कि कहीं नहीं है दर्ज कारख़ाने की बैलेंसशीट में
पर एक सम्पत्ति की तरह लटका है यह

कामगारों के लिए
उनके सिर पर लगातार पड़ता एक भारी हथौड़ा है यह

भीतर तो भीतर
गेट के बाहर निकलने के बाद भी उनकी पीठों पर
दूर तक बेताल प्रश्न-सा चिपका रहता है यह

गेट के भीतर समय बदल रहा है पारियों में
अयस्कों के लिए तापमान बदले जा रहे हैं
चीजे़ं आकार बदल रही हैं
मशीनें धरती की छाती को हिला रही हैं
ब्लेड चिंगारियों के फूल खिला रहे हैं

छोटे दाँतों की दुनिया पाँच बार घूमती है तो
एक बड़ा दाँता खिसकता है
बड़े दाँते के पेट में जाम होकर रह गये छोटे दाँते
ब्लेडों की चिंगारियाँ थम गयीं अचानक

फ़ायदे के लिए खुला एक कारख़ाना
बन्द होने में फ़ायदा देखने लगा
नीतिवाक्य की बग़ल में लटक गया एक बड़ा ताला

इस बीच उदारता विश्वव्यापी हो गयी थी
और स्थानीयता आत्महत्या करने लगी थी

नीतिवाक्य लटका था बाहर जस का तस
जबकि भीतर सम्पत्तियाँ निकस गयी थीं सारी
ऐसे में ही एक कामगार के लड़के ने
जो भरपेट पानी पिये हुए था
उखाड़ लिया वह नीतिवाक्य
और हवा में उछाल दिया यथाशक्ति...

एक पेड़ से जा टकराया वह नीतिवाक्य
और अपने वेग को खो गिर पड़ा
एक उठती दीवार के ताजे़ सीमेंट पर

अच्छी ख़ासी चहल-पहल थी दीवार की दोनों ओर
एक ओर से उठ रही थी अज़ान की आवाज़
दूसरी ओर धुआँधार कीर्तन चल रहा था
दोनों ओर से दौड़कर आये थे लोग
दैवीय करिश्मा समझ

‘कार्य ही पूजा है’
देखा उन्होंने
‘ये किसी की साज़िश है’
कहा उन्होंने।