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कालंजर की गोह / दिनेश कुमार शुक्ल

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टूटा हुआ पलस्तर
कलई खुली-खुली-सी
बहुत पुराना शहर
मुलम्मा उतरा-उतरा
लेकिन जो कुछ झलक रहा है
ढहती दीवारों के भीतर
उसमें कुछ दयनीय नहीं है
निरीहता है शेरों जैसी
सहज-विनीत सभ्यता वाला
सौम्य दर्प है

उजड़-उजड़कर बसने वाला
कालंजर तो कालभित्ति है
जिस पर लिखने वाले जी भर
लिखते गये मर्म की बातें
जिन्हें हवा ने औ’ बारिश ने
विजयी और पराजित सब ने
अपने-अपने अर्थ दिये हैं
देवनागरी नन्दिनागरी गुप्तयुगीन
खरोष्ठी ब्राह्मी रोमन लिपियों
के आलेख
पढ़ चुका है वो
घनी शरीफे की झाड़ी में
छिपा हुआ खरगोश
हमारी नज़्र बचाकर
फिर चन्दामामा की गोद चला जाएगा
कहीं सो रही, कहीं त्रिभंगी खड़ी हुई उस
शालभंजिका के चेहरे पर
आत्मा का उल्लास देह की पीड़ा के संग,
काल-व्याल को टॉंग उड़ गया है
पत्थर का गरूड़,
गुफा के भीतर जल है,
दाड़िम के दानों जैसा रक्ताक्त-श्वेत
है अट्टहास कालंजर का
जो हिला रहा है शिल्पभ्रष्ट
अनगढ़ काली चट्टानों को
एक पुरातन गोह वहीं पर
घात लगाकर छिपी हुई है
अर्धस्वप्न के, अर्धसत्य के, अर्धचेतना के
पदार्थ से निर्मित काली गोह
झपटती है तितली पर
कभी रही जो वास्तुकार
परमर्दिदेव की

इन प्राचीरों के खॅंडहर में
डाकू अब भी आ छिपते हैं
राजा का संरक्षण अब भी
लेकिन अब तो दोनों मिलकर
पृथ्वी को, उसके खनिजों को,
उसकी सन्तानों को,
उसके जल थल नभ को,
वृक्ष वनस्पति खग को मृग को,
नगर गॉंव घर देह गेह आत्मा तक
सब कुछ चर डालेंगे
पाँच साल या उससे कम में

आतंकित है गोह
ढूँढ़ती गर्भगुफा धरती माता की
उसके साथ-साथ उड़ती तितली भी
आश्रय ढूँढ़ रही है

चट्टानें ही चट्टानें हैं कालिंजर में
लेकिन जीवित चट्टानें हैं
कहीं गोह, तो कहीं वृक्ष, तो कहीं धैर्य
तो कहीं सृजन करते मनुष्य-सी
हाड़-मांस की चट्टानें हैं कालंजर में !