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कालाय तस्मै नमः / खण्ड-1 / भारतेन्दु मिश्र

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1.
पलकों में आकर छिपा, कब कैसे सखि कौन
क्या समझाऊँ बावरे, ढुरते जाते नैन।

2.
स्वप्न जगी, सुधि में ठगी, मन में अनहद गान
दीप लिये वन-वन फिरी, प्रिय न सकी पहचान।

3.
रूप रंग-रस गंध सब, नया हुआ हर बार
मन जस-का-तस ही रहा, जाने क्यों इस बार।

4.
पंख कतर कर छोड़ दो, एक कपोती द्वार
साँझ ढले घर आ गयी, ले कपोत दो चार।

5.
हम हैं, यह सौभाग्य है, समय बड़ा ही ढीठ
चार चाम की चाबुकें, एक अश्व की पीठ।

6.
रोली-अक्षत-फूल-फल, फेंक नदी के तीर
कहीं शंख ने बात जो, सह न सके मंजीर।

7.
शुभ तिथियों पर छा गये, बने अशुभ संयोग
करते अतिवादी वणिक, रक्त-पात उद्योग।

8.
इस सरकारी हाट में, बिक तू ठौर-कुठौर
समझ जाएगा एक दिन, करते करते गौर।

9.
धुआँ उठा, ज्वाला जली, पिघल बहा नवनीत
रूखे-सूखे शब्द हैं, झुलये-झुलसे गीत।

10.
जब सब तारे दिप उठे, गहराया आकाश
चाँद देखकर नदी ने, रात कसा भुजपाश।

11.
जेब कटी, झगड़ा हुआ, बस में खाई मार
हम बेहद ख़ुशहाल हैं, हम बेहद लाचार।

12.
कुछ ख़त, थोड़ी पुस्तकें, टेढ़ा एक मकान
कुछ श्रम से, कुछ कर्ज़ से, मोल लिया श्रीमान।

13.
सभी रंग मुझ पर चढ़े, अब मन है बदरंग
ज्यों बिजली के पोल पर, उड़कर फँसे पतंग।

14.
चली-थकी-ठिठकी-रुकी, नेताओं के द्वार
लुटी-पिटी-सी नागरी, आज़ादी बीमार।

15.
वृक्ष हिले, धरती हिली, जब आया भूचाल
फिर भी कुर्सी थिर रही, जकड़े कई सवाल।

16.
ताल किनोर वृक्ष से, गिरे बया के नीड़
अकुलायी शैवाल तक, देख खगों की भीड़

17.
टूटे जब-जब वृंत से, सरस मालती फूल
सतरंगी सपने मरे, गंध बो गयी शूल।

18.
वर्षों के संघर्ष में, पल भर की मुस्कान
एक ख़बर बनकर जिया, पल भर का अभिमान।

19.
पिंजरे में है आदमी चिड़िया हुई स्वतंत्र
मुक्त-कंठ निर्द्वंद्व स्वर, उसके सुख का मंत्र।

20.
हम रथ हैं, तुम हो रथी और सारथी दोन
ढोते तुमको देवता, हम होकर तल्लीन।

21.
अतिवादी हँसकर करें, प्रतिदिन अत्याचार
वृक्ष कटे संचार के, हर चिड़िया बीमार।

22.
छिद्र बढ़े जल भर रहा, तट सुदूर ठहराव
दिशाहीन नाविक व्यथित, अब-तब डुबी नाव।

23.
बिखरे केशों में धुली, जब विनाश की धूल
अँजुरी में कुम्हला गये, तब पूजा के फूल।

24.
वृक्ष खोखला कर रहा, एक चतुर कठफोर
कल नाचेगा आम पर, फिर वह बनकर मोर।

25.
रोज चिता में जल रहे, सगे स्वप्न सम्बंध
अब कैसी दुविधा बची, अब कैसे अनुबंध?

26.
हम लथ-पथ इस गैल में, स्वप्न हो गये धूल
रक्तस्राव करते चरण, चुभे वंश के शूल।

27.
लौट-लौटकर आ रहे, लक्ष्य-भ्रष्ट हो तीर
तुम हो अर्जुन समय के, सूर्यपुत्र मैं धीर।

28.
कुछ नपानी, कुछ ताल भी, कुछ मछली बीमार
पावस अब कब आएगी, लेकर सलिल फुहार?

29.
पीपल की नजरें झुकीं, बरगद साधे मौन
अस्मत चंपा की लुटी, तुम बबूल हो कौन?

30.
आँख-कान सब बंद कर, कर जिह्वा को कैद
यही प्रगति का मंत्र है, चल होकर मुस्तैद।

31.
विधि-निषेध की लाठियाँ, खानी हैं सरकार
हम सेवक, हम पशु सदृश, क्या जानें अधिकार?

32.
कई माह से ठीक से, पढ़ न सके अखबार
सुबह शाम की दौड़ है, दो रोटी की मार।

33.
इधर बदलता जा रहा, इस घर का भूगोल
रोज मँजीरे कह रहे, किसी ढोल की पोल।

34.
पछुआ कुछ ऐसी चली, नंगी नाची नीम
आयी अपने गाँव में, जब विदेश की टीम।

35.
सच की गलियों से निकल, ले पथ का विस्तार
कौन कहे झूठा तुझे, तू सबकी सरकार।

36.
लो करतल पर ठोंक दो, तुम्हीं सृजन की कील
मैं समझूँगा, उड़ गयी, मांस नोंच कर चील।

37.
कतरा-कतरा जिदगी, खंड-खंड विश्वास
इन आँखों में टीस है, उन आँखों में प्यास।

38.
एक कंकड़ी क्या गिरी, उछले कई सवाल
मन के ऊहापोह में, हिला देर तक ताल।

39.
खिंच जिसके लावण्य से, नदी करे अभिषेक
वह सबका रस पी गया, गहरा सागर एक।

40.
जाना, जब वे कर रहे, किसी मूर्ख की खोज
कालिदास तब डाल को, लगा काटने रोज।

41.
घटना घटी अघट्य या, फँसी ताल में भेड़
चुप गीधों की बैठकें, मुखरित पीपल पेड़।

42.
स्वर्णिम हाथों से लिखी, कलियों पर मुस्कान
उस सूरज को ढक रहा, यह कुहरा नादान।

43.
पतझर से भी क्या गिला, करने दो बरबाद
वर्तमान की पत्तियाँ, बन जाएँगी खाद।

44.
जंग लगे ताले खुले, टूटा सद्व्यवहार
अखबारों ने रेत दी, मज़हब की तलवार।

45.
रह-रह कर पर्दा उठा, भड़का एक जुनून
लाल हुईं, नीली हुईं, आँखों उतरा खून।

46.
नदी चढ़ी पुल तोड़कर, जब जब खुले किंवाड़
बेचारा मुर्गा बना, उधर रेत पर ताड़।

47.
चमगादड़ ने दे दिया, उल्लू को अधिकार
सारे दिन का हो गया, अब वह पहरेदार।

48.
चुभी फाँस थी आँख में, खोया मन का चैन
समझौतों की फ़र्श पर, काटे कटी न रैन।

49.
रक्त पिया, लजीं अस्थियाँ और खींच ली खाल
इस काँटों की देह का, है बबूल-सा हाल।

50.
गलती आखों से हुई, खोया दिल का चैन
कुँवर-बहादुर बाँकरे, मिले सदा बेचैन।