कालाय तस्मै नमः / खण्ड-2 / भारतेन्दु मिश्र
51.
शिशिर संग होकर विदा, धूप चली ससुराल
नयी बहू ने ओढ़ ली, ज्यों कुहरे की शाल।
52.
सोनजुही तू सुस्मिता, मैं कैक्टस का फूल
मत चल मेरी राह पर, बिछे शूल-दर-शूल।
53.
माफ किया सौ गालियाँ, ऐ मूरख शिशुपाल
अब पानी है नाक तक, अपनी जीभ सँभाल।
54.
फूल-फूल कर रह गये, मुझ पर वृक्ष हजार
परसेवा का एक भी, फल न मिला सरकार।
55.
खिलीं-चलीं आँखें कभी, आयीं फिर-फिर जाग
खून कभी, आँसू कभी, कभी बरसती आग।
56.
आग पेट की कर रही, दो रोटी की माँग
किसी तरह रचते रहे, हम जीने का स्वाँग।
57.
बूढ़ी आँखों की हँसी, वह ममता की मार
मरती-मरती मर गई, दे आसीस हजार।
58.
वे पिक, वे चातक नहीं, वे रसाल थे और
मन वासंती ही नहीं, कैसे फूटे बौर?
59.
बौराये हैं आदमी, आम नहीं, कुछ खास
लगे बाँचने काग अब, जंगल का इतिहास।
60.
टेसू दहका दिप उठा, पूरा विंध्य-प्रदेश
वासंती झूमी चली, गयी बाँटकर क्लेश।
61.
साँसों में भरती रही, तू महुआ की गंध
तोते फिर रचने लगे, दोहे गीत प्रबंध।
62.
फिर-फिर सूरज झाँकता, नंगा खड़ा पठार
लोग ले गये फूल-फल, अब महुआ लाचार।
63.
कौओं से काले हुए, उन तोतों के पंख
वेद बाँचते थे कभी, आज बेचते शंख।
64.
वटुकों को जो टोकते, थे वे शुक ही और
अब पिंजरे हैं, भूख है, राम राम! दो कौर।
65.
हँस मत रूखा रूख हूँ, मैं भी था अपरूप
वर्षों से मैं झेलता, रहा जेठ की धूप।
66.
मिमियाया, फिर मर गया, जिस पर पड़ा अकाल
नक्कारे में बोलती, उस बकरे की खाल।
67.
पढ़ धरती की सतसई, पढ़ अंबर के छंद
सूरज-नदिया-वृक्ष से, मत कर आँखें बंद।
68.
बारह मास खड़ा रहा, वह गुम-सुम मन मार
वासंती ने क्या छुआ, बौराया सहकार।
69.
जल कन्याएँ नाचतीं, जिसे देखकर रोज
तूफानों में कर रहीं, उसी चंद्र की खोज।
70.
फिर टेसू वन की तरह, दहका पूरा देश
वासंती पढ़ने लगी, वही शोक संदेश।
71.
जो टूटे, वे कब जुड़े, जतन किये सौ बार।
टूटे पत्तों की तरह, हम सबका व्यवहार।
72.
थूक-थूककर कर रहा, गिरगिट सबको तंग
जितने वृक्षों पर चढ़ा उतने उसके रंग।
73.
रो मत, पागल! सँभल चल, भरकर नई उमंग
कुछ टूटा, कुछ जुड़ गया, यही प्रगति का ढंग।
74.
सरसों सरसी खेत में, अलसी नाची खूब
जैसी थी वैसी रही, गलियारे की दूब।
75.
गये, ले गये सभ्यता, चुके, कर चुके भोग।
रहे, बच रहे मूल्य कुछ, बन सामाजिक रोग।
76.
रँग ले चादर खून से, क्यों उदास रँगरेज
खून बह रहा मुफ्त में, भाव रंग का तेज।
77.
ऊपर नीचे शूल हैं, मैं हूँ घायल पाँव
अपनी क़िस्मत में लिखी, यह बबूल की छाँव।
78.
ढलते-ढलते ढल रहा, पश्चिम का दिनमान
अब पूरब से प्रार्थना, लिखे किरण मुस्कान।
79.
लो, हो-ली रंग की कथा, चुका नेह विश्वास
मँहगाई की मार से, घुट-घुट घटा हुलास।
80.
पानी का सौदा हुआ, तड़पी मन की मीन
अब रेती पर साँस तो, बची एक दो तीन।
81.
उजड़ा घर, ममता उड़ी, खंडहर हुआ मकान
छत टूटी, छप्पर उड़ा, अब चौखट बेजान।
82.
समिधाओं के साथ ही, अब जल जाते हाथ
निष्फल यज्ञ हुए, गये, लोग छोड़कर साथ।
83.
रात-रात, दिन-दिन सुने, मैंने जो संवाद
मैं उनका प्रतिरूप हूँ, वे मेरे अनुवाद।
84.
फूल बेहया के खिले, बेमौसम सब ओर
गधे झूमते जेठ में, कौवे भरते शोर।
85.
अब सुभाष को दे रहा, कोई भारत-रत्न
राजनीति की गोटियाँ, रुष्ट-तुष्टि का यत्न।
86.
कुछ फाड़े, कुछ फट गये, संस्कृति के अध्याय
धीरे-धीरे हो रहे, नर पशु के पर्याय।
87.
सौ घायल, पैंसठ मरे, दुर्घटना में आज
राहत में आहत कई, मंत्री जी नाराज।
88.
ज्यों-ज्यों दिन छोटा हुआ, त्यों-त्यों लंबी रात
खून जमा, आँसू जमा, सुन्न हुआ सब गात।
89.
लगा हारने सूर्य भी, अँधियारे से रोज
अब कुहरा देने लगा, उसको दुहरा डोज।
90.
श्वेत-रीछ कहने लगा, देख तड़ती रूह
पौ फटते कट जाएँगे, अँधियारे के व्यूह।
91.
सच्चाई चुप देखती, मिथ्या का भ्रमजाल
सहमी सिकुड़ी गाय है, अस्थि शेष कंकाल।
92.
दरवाजे औ खिड़कियाँ, बंद किये श्रीमान
कूद-कूद कहने लगे, मुझसे कौन महान?
93.
रोहित से कहने लगे, हरिश्चंद्र हो खिन्न
दुख ही भोगा उम्र भर, तू पथ चुन ले भिन्न।
94.
दुर्योधन ने लूट ली, फिर कृष्णा की लाज
होटल में बैरा बना, किसन छीलता प्याज।
95.
लथपथ सारे वीर हैं, क्षुब्ध-धरा चुप व्योम
इंद्रप्रस्थ में चल रहे, स्वर्ण-सुंदर-सोम।
96.
अब गलियों में घूमते, नित्य नये भगवान
सतयुग आने का मुझे, होता है अनुमान।
97.
सुलगे धुआँ-धुआँ हुए, उपले जैसे लोग
पर सब कुछ सहते रहे, समझ ग्रहों का योग।
98.
घुटते-घुटते घुट गयी, जब सपनों की साँस
खुली खिड़कियाँ तब मिला अधकचरा विश्वास।
99.
लिखी गधे ने पटकथा, रचे ऊँट ने गीत
अभिनय वानर रीछ का, मेंढक का संगीत।
100.
मीठे-मीठे बोल हैं, तीखे-तीखे बाण
हर चेहरा घायल करे, लेकर कपट कृपाण।