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कालाय तस्मै नमः / खण्ड-4 / भारतेन्दु मिश्र

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151.
रह-रह सब पँखुरी खुलीं, फैली टीस अनंत
क्योंकि प्रकृति के रंग सा, मन का नहीं वसंत।

152.
जुगुनू जुड़कर खेलते, अँधियारे का खेल
धीरे-धीरे छीजता, यहाँ दीप का तेल।

153.
संकेतों की व्यंजना, गुमसुम रस-परिपाक
नये पात्र रचता रहा, मन कुम्हार का चाक।

154.
रंगभवन बदरंग है, रस नीरस सब ओर
चंदा खाता आग अब, लुक-छिप रहे चकोर।

155.
दस्तक, दे कहने लगा, सुबह-सुबह ईमान
कविता में जीवित रखो, भाई मेरे प्रान।

156.
दस्तक दे, कहने लगा, सुबह-सुबह ईमान
कविता में जीवित रखो, भाई मेरे प्रान।

156.
समीकरण सिकुड़े पड़े, कदम-कदम पर घात
हर छतरी में छेद है, बेमौसम बरसात।

157.
काशी-मथुरा-द्वारिका, गया अध्योध्या खूब
पर अब तक झुलसी नहीं, काम क्रोध की दूब।

158.
गाँव बहाकर ले गयी, जब नदिया की धार
तब रेती-पुल-पुलिन पर, तुमने किया विचार।

159.
उल्टे मुझपर ही पड़े, मेरे चर्चित दाँव
सड़क काटकर खा गयी, मेरे दोनों पाँव।

160.
एक डुगडुगी-साँप-दो बंदर, हैं ख़ुद तीन
लड़ा मदारी भूख से, बजा-बजाकर बीन।

161.
हमसे कन्नी काटकर, निकल गया मधुमास
व्यर्थ सिद्ध होने लगी, मधु-पराग की आस।

162.
जीवन सूखा ताल है, अब न कमल-दल शेष
कहाँ बसें तितली-भ्रमर, जब सब रस निश्शेष।

163.
षड्यंत्रों की ही फसल, काट रहे खलिहान।
बारूदों के ढेर पर, बैठे ठगे किसान।

164.
अरहर बोयी खेत में, उगने लगे फसाद
नेता जी देते रहे, इसी फल को खाद।

165.
रंगहीन निर्गंध यह, दौड़ रोज़ की व्यर्थ
अतुल थकन भटकाव का, बस दो रोटी अर्थ।

166.
बिला वजह यायावरी, सब आचरण अशुद्ध
यशोधरा को मार कर, आज बना वह बुद्ध।

167.
नकली ख़ुशबू पोतकर, तितली भरे उड़ान
ठगे, जड़-जुए लोग सब लुटते बन अनजान।

168.
सुख-सपनों की खोज में, पहुँचा सागर तीर
अब तटवर्ती आँधियाँ, जाती आँखे चीर।

169.
सीमावर्ती गाँव के, हम सुख-साधन हीन
जुड़े केंद्र के नाम से, ज्यों गड़ही की मीन।

170.
मालविका मन-मोरनी, नाची भरे तरंग
अग्निमित्र के हृदय में, उठती अब न उमंग।

171.
सिर्फ मसखरी कर रहे, हुए विदूषक मौन
अब राजन के सामने, मुँह खोलेगा कौन?

172.
आजादी की खोज में, उड़ा सुआ सब ओर
फिर पिंजरे में आ गया, बन अपराधी चोर।

173.
लंबी बहसों में कटी, उम्र, गये दिन-रात
बातों-बातों में बनी, बिगड़ी थी जो बात।

174.
चीं-चीं करती खोजती, थी जो रोज़ अनाज
वह गौरैया कट मरी, लड़ पंखे से आज।

175.
ग्राम-वधू ने फिर सुबह, आँगन डाला लीप
मार रात की भूलकर, हँसती सखी समीप।

176.
दग्ध-हृदय का ताप ढक, दिख पति के अनुकूल
वासवदत्ता-सी विहँस, उदयन है प्रतिकूल।

177.
कर तुलसी की आरती, कुशल मनाती रोज
उसका पति परदेस में, रहा तितलियाँ खोज।

178.
कुंज नहीं, क्रीड़ा नहीं, अब न रहा अभिसार
सरेआम हर सड़क पर, पलता है व्यभिचार।

179.
मन की फाइल खोलकर, कर ले ख़ूब हिसाब
परमेश्वर की टिप्पणी, का है नहीं जवाब।

180.
हाँफ-हाँफ कर मर रहा, वह कुत्ते की मौत
अधिक उम्र ही बन गयी, साँस-साँस की सौत।

181.
यमुना निर्वसना हुई, अब रेती वीरान
किंतु लाज से नदी ने, न दी कूदकर जान।

182.
ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा, हुई सयानी छाँह
फिर संध्या को ढीठ वह, छुड़ा ले गयी बाँह।

ढाई डग धरती नहीं, मुट्ठी भर आकाश
सच्चाई ने कर दिया, उसका सत्यानाश।

184.
हरे-भरे थे, फूलकर, पीले पड़े कनेर
दिन फिरने में आजकल, लगती कितनी देर?

185.
सीढ़ी पर चढ़ने लगी, जब फागुन की धूप
प्यास-प्यास रटने लगा, मन का अंध कूप।

186.
फिर काग़ज़ का पेट भर, पूरा कर आदेश
सरक-सरक चल, है यही, सरकारी निर्देश।

187.
सुन सब चमचों की कथा, पढ़ आचरण-पुराण
मध्यम मार्ग निकालकर, चुन अपना निर्वाण।

188.
रच मेंहदी से हाथ पर, निज पिय की तसबीर
होली के दिन देर तक, मलती रही अबीर।

189.
ढीठ पूर्णिमा ने पुनः, छिटकायी जो याद
करते बंदी नयन ये, अब उसकी फरियाद।

190.
मन के मंजुल चित्र पर, जमी समय की गर्द
दर्द दे रहा रात-दिन, अपना ही हमदर्द।

191.
छोड़ हवेली की कुढ़न, अब दरिया के तीर
मोहरे लेकर चल पड़े, फिर वह मिर्जा-मीर।

192.
किन-किन कंगन ने कहा, झुमका-झूमा खूब
फिर पायल के शब्द में, गई करधनी डूब।

193.
लाखों रंग बदल लिये, बदला पर न स्वभाव
उस कँकरीली गैल का, इतना पड़ा प्रभाव।

194.
घर-कुनबा-रोटी यहाँ, है ममता की मार
व्यर्थ भटक कर जा रहा, सात समंदर पार।

195.
कहाँ सघन घनश्याम हैं, कहाँ वेणु-स्वर सार
विद्युत-सी राधा नहीं, क्या फूटे रसधार?

196.
रोज जलाती ही रही, मन भर धूप कपूर
माँग अभी भी माँगती, चुटकी भर सिंदूर।

197.
रुन-झुन में हिचकी छुपा, बैठ सरोवर पास
लिखा तर्जनी से वधू ने थिर जल पर प्यास।

198.
जब मकड़ी भूखी मरी और हुई बेहाल
तब उसने बेमन रचा, था यह सुंदर जाल।

199.
मंदिर मस्जिद घूम कर, तुड़वा बैठा टाँग
देह-गंध की खोज में, भरता हिरन छलाँग।

200.
अनमिल रेखाएँ जुड़ीं, ख़ूब किया संघर्ष
किंतु फला दुर्भाग्य ही और मिला अपकर्ष।