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काला कुंआ / रणजीत

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बहुत कुछ है पर दिखता नहीं है कुछ भी
वास्तव में कुछ भी नहीं है
पर निगल जाता है सब कुछ को
डुबो देता है
एक अस्तित्वहीनता के अन्धे कुएं में
नहीं, न पानी, न पृथ्वी, न हवा
कुछ भी तो नहीं है
पर सारे पदार्थों को बना देता है अपदार्थ
द्रव्यों को द्रवीभूत/वाष्पीभूत/परा-भूत
ग्रहों को, उपग्रहों को, पूरे के पूरे सौर-मंडलों को
निगल जाता है एक ही झपाटे में
एक काले निराकार डाइनासौर की तरह
अपनी लपलपाती हुई
गुरुत्वाकर्ष की जीभ से खींच कर।
एक दिन--
चाहे जितने असंख्य दिन दूर हो वह एक दिन
हमारी यह प्यारी पृथ्वी भी समा जाने वाली है
अनस्तित्व के उसी घुप्प अँधेरे में-
महाकाल के उसी विकराल गह्वर में।