भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काला चन्द्रमा / के० सच्चिदानंदन
Kavita Kosh से
चाँद को देखकर, जो सिहरा पहले फिर
सिकुड़ा, बना एक छोटा वृत्त
एक छाया पर लेटकर, जो
अंधेरी हो रही है और धीमे-धीमे मर रही है
याद करते वह पीली उजास जो दूर गई और अदृश्य हुई
इस रात मेरा जीवन जलता है धुंधला-सा।
अनुवाद : राजेन्द्र धोड़पकर