भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काला राक्षस-1 / तुषार धवल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समुद्र एक

शून्य अंधकार-सा पसरा है।

काले राक्षस के खुले जबड़ों से

झाग उगल-उचक आती है

दबे पाँव घेरता है काल

इस रात में काली पॉलीथिन में बंद आकाश


संशय की स्थितियों में सब हैं

वह चांद भी

जो जा घुसा है काले राक्षस के मुँह में


काले राक्षस का

काला सम्मोहन

नीम बेहोशी में चल रहे हैं करोड़ों लोग

सम्मोहित मूर्छा में

एक जुलूस चला जा रहा है

किसी शून्य में


कहाँ है आदमी ?


असमय ही जिन्हें मार दिया गया

सड़कों पर

खेतों में

जगमगाती रोशनी के अंधेरों में

हवा में गोलबंद हो

हमारी ओर देखते हैं गर्दन घुमा कर

चिताओं ने समवेत स्वर में क्या कहा था ?


पीडाएँ अपना लोक खुद रचती हैं

आस्थाएँ अपने हन्ता खुद चुनती हैं

अंधेरा अंधेरे को आकार देता है


घर्र घर्र घूमता है पहिया