कालिदास के मेघदूत! / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
आय अखाड़ोॅ के पैहलोॅ दिन कहाँ, अखिरला रात छै;
कालिदास के मेघदूत! कबतक लौटै के बात छै!
अलका में विरहिनी यक्षिनी छै तों की बतियाबै छोॅ?
रामगिरी पर यक्ष विकल छै, तों कहियातक आबै छोॅ?
चान ठहाका मारी, सौंसे टा आकाश समेटै छै;
समतल, नदी, पहाड़, कन्दरा सें मुस्की केॅ भेंटै छै;
ओकरोॅ मुखड़ा साफ, मगर भीतर-भीतर में घात छै!
आरो कुछ उधरी गेलोॅ छै जघन गंभीरा धीरा के,
आरो कुछ सँसरी गेलोॅ छै नीला वस्त्र अधीरा के,
तोरोॅ आशा में विवस्त्र छै हतोपरास अनेकों जीब,
जेकरोॅ भूख मिटाय में बनलै अम्रकूट-भी परम गरीब,
चेहरा अजब उदास जर्जरित जन-मजूर के आँत छै!
सूनोॅ पथ छै, खेत कुमारी के अजबारी मांग रं,
कृषक किशोरी के आँखी में तोरोॅ छवि अनजान रं,
‘आ परे पर’ सूनै खातिर बड़ी तवासलोॅ कान छै
अलका दिश ताकै में बौरोॅ गिरहथ साँझ-बिहान छै,
जल्दी सब संवाद सुनाबोॅ ई कैहनोॅ उतपात छै?
कहाँ अखाड़ोॅ के पैहलोॅ दिन कहाँ आखिरला रात छै;
कालिदास के मेघदूत! कबतक लौटै के बात छै?