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कालीन बुनते बच्चे / सुभाष शर्मा
Kavita Kosh से
नियति के नाम पर
धंधा कालीन का
फल-फूल रहा है रोज-रोज
मुलायम उंगलियों पर चल रहे हैं जूते
देश-विदेशों के सेठ-शहंशाह
अंदाजते हैं कालीनों की मुलायमियत
जूतों की नोकों से ।
नुमाइश में शरीक दर्शक
दुकानों में आए खरीदार
नहीं सोचते कालीन के अतीत
या अतीत के कालीन पर
नहीं रोते वर्तमान के सूखे होंठों पर
तरस नहीं खाते भदोहीं/भिवंडी पर
जहाँ बिकता है बचपन
तीन सौ रुपये दर माह
और जवानी 'विसनोसिस' बीमारी का सिर्फ दूसरा नाम ।
छूट जारी है उद्योग में
वृद्धि है निर्यात में
तिजोरियों में/विदेशी मुद्रा में
और तेजी से फैल रहा है अंधकार
बीस वर्ष के बूढ़ों में
जिन्होंने बुनते-बुनते कालीन
उलझा ली हैं जिंदगी के ताने-बाने के गाँठें ।