कौन कहता है
इसे कीड़ीनगरा
चाहे
चींटियाँ आएँ-जाएँ
घूमे
बिल दर बिल
प्रत्यक्ष है
मिट्टी बनी बाँसुरी
बाँसुरी के छिद्रों में
घूमती है चींटियाँ
सुनती है
धीमी रागिनी
जो गूँजती है अब भी
ग्वालों के कंठों से निकलकर
कालीबंगा के
सूने थेहड़
सूनी गलियों में।
राजस्थानी से अनुवाद : मदन गोपाल लढ़ा