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काली नदी के उस पार / संतलाल करुण

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जो मैं खोजता रहा अपने आकाश का घनसार-पाटल
अपनी धरती का कँवल-पंख
तो बस मैं खोजता ही रहा
सबकुछ उड़ाए लिए जाती हवाओं के बहकावे में
एकटक आँखों में सूना आसमान साधे
कटी नाभिवाले अधमरे जवान मृग की तरह।

काले बदलों ने चाँद ढक लिया
पहले अधाधुंध अंधड़
दसों दिशाएँ मिलकर एक हो गई
फिर मूसलाधार वर्षा जिसने रात-दिन एक कर दिया
जिसमें भीगता-भागता, गिरता-पड़ता
उखड़े-पुखड़े पेड़-पौधों पर आँसू बहाता
मैं बस नापता रहा मृत्यु-पथ
कहीं कोई मददगार न मिला।

एक-एक कर सारे रास्ते आँखें मूँदने लगे
न मोड़, न चौराहे, न कोई अंत
काँटों, रोड़ों, कत्तलों से लहूलुहान
मेरे धड़ाम से ढेर हुए पत्थर हो गए बोझ को छोड़
समय चलता चला गया दूर बहुत दूर
न तो उसने मुड़कर देखा
न रुका
न मेरी गुहार सुनी।

सुना है किसी दूर देश में
मेरे मन का हरसिंगार खिलता है
अपने रंग-सगंध के साथ
मैं वहाँ जाना चाहता हूँ
बड़ा अनोखा मौसम है उस देश का
मैं निहारना चाहता हूँ उस देश का आकाश
देखना चाहता हूँ उस देश की धरती
मैं हृदय से छूना चाहता हूँ
उस पुष्पवृक्ष का तना, डालें, पत्तियाँ और मन
जिसके बिना मैं यहाँ पत्थर-सा रह गया हूँ।

मेरे और उस देश के बीच
एक नदी बहती है
काली नदी
जो हर साँझ, हर सुबह
वासंती हो जाती है
जन्म लेने लगती है उसमें सुनहरी तरंगें
और वह नदी हँस उठती है
बाकी समय उसकी स्याह सूरत से
बहुत डर लगता है
साहस नहीं होता उसके तट तक जाने का।

पर अब साँझ को
या सुबह को क्या देखना
अब क्या देखना घड़ी की सुइयाँ बार-बार
मैंने कर्म के देवता को करीब से जाना है
भाग्य के देवता को बहुत परखा है
अब तो हर समय साँझ है
हर समय सुबह है मेरे लिए
मैं इस झूठी धरती
इस झूठे आकाश
और इन झूठी हवाओं के बहकावे में
अब और नहीं ठरना चाहता।