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काले-सफ़ेद परोंवाला परिंदा और मेरी एक शाम / अख़्तर-उल-ईमान

यह नज़्म अधूरी है। अगर आपके पास उपलब्ध है तो कृपया इसे पूरा कर दें।

बर्तन,सिक्के,मुहरें, बेनाम ख़ुदाओं के बुत टूटे-फूटे
मिट्टी के ढेर में पोशीदा चक्की-चूल्हे
कुंद औज़ार, ज़मीनें जिनसे खोदी जाती होंगी
कुछ हथियार जिन्हे इस्तेमाल किया करते होंगे मोहलिक हैवानों पर
क्या बस इतना ही विरसा है मेरा ?
इंसान जब यहाँ से आगे बढ़ता है, क्या मर जाता है ?