भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काले अक्षर / कर्मानंद आर्य

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इन दिनों जब हम बोल रहे हैं
मधुरा वाणी
पूरे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करना सीख रहे है
दिमाग में बैठा रहे हैं भैंसीले अक्षर
उनकी बनावट और आकार में हम गा रहे हैं
शिक्षा शेरनी का दूध है और कम है
बता रहे हैं सबको
तब, उनकी छाती फट रही है
खून निकल रहा है
मिर्गी आ रही है
परेशान हैं क्या कर रहे हो भाई
हमारे सतयुग और त्रेता को तुम लूट ही चुके
यह करमजला कलयुग भी न रहने दोगे
देशी दया करो हमपर
तुम बहुत आगे बढ़ लिए
हमें दे दो आरक्षण
अगर तुम इसी गति से बढ़ते रहे
तब एक दिन हम चूहों की तरह दाने चुरायेंगे
और भूख से छटपटायेंगे
बिल्ली करेगी हमारी रखवाली
तब मैं उन्हें कहता हूँ
सोचो, जिसने सदियों तक संताप सहा है
और अक्षर देख नहीं पाए अपने कुनबे में
उनसे पूछो
अक्षर कैसे दिखाई देते हैं
कैसी खुशबू आती है उनसे
उनका पानी कितना मीठा है
और उससे भी आगे
नई सदी में वे हीरों से भी ज्यादा चमकदार क्यों हैं