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काले चुनाव की जंजीर / विमल राजस्थानी

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जब तक इस काले चुनाव की टूटेगी जंजीर नहीं
तक तक पायल मौन रहेगी, कूकेगी मंजीर नहीं
यह चुनाव की बाढ़ भयंकर
बहे आ रहे पत्थर-कंकर
भोली जनता, मजबूरी में
पूजे-माने जिनको शंकर
ये शिव-शंकर नाग-नाथ हैं
ये बम भोले साँप-नाथ हैं
इनके दायें-बाँये-आगे-पीछे
विषधर नाग साथ हैं
इन्हें झुमातीं, इन्हें लुभातीं, आधुनिकाएँ सुर-बालाएँ
पल भर को भी इन्हें रूलाती दीन-दुखी की पीर नहीं
लोकतंत्र तो कफन ओढ़कर
कब का सोया पड़ा चिता पर
इसे चाहिए और कुछ नहीं
सफल क्रांति की चिनगारी भर

जब तक दीन दयालु सुधी जन
जाते नहीं सुभाष चन्द्र बन
तब तक चक्के जाम रहेंगे
सदा विधाता वाम रहेंगे
सदा विधाता वाम रहेंगे
इस शोषण का अंत न होगा, पतझर छोड़ वसन्त न होगा
जब तक कवि की लौह लेखनी बन जाती शमशीर नहीं
योग्य व्यक्ति झख मारेंगे ही
नेता सब रस गारेंगे ही
त्राहिमाम की मुद्रा में हम
प्रभु को कलप पुकारेंगे ही
दल दलदल-सा लीलेंगे ही
ओझा हमको कीलेंगे ही
जीने को तो उठते-गिरते
जीते हैं हम, जी लेंगे ही
लेकिन जब तक ये चुनाव हैं, छल-छद्मी हैं पेंच दाँव हैं
तब तक कोटि-कोटि इन आँखों का सूखेगा नीर नहीं
यह विधान तो सड़ा-गला है
इससे किसका हुआ भला है ?
गोरे गये, आ गये काले
लेकर बर्छी-बल्लम-भाले
न्याय नहीं, अन्याय हो रहा
सुबक-सुबक कर सत्य रो रहा
चारों ओर पतन फैला है
जननी का आँचल मैला है
सिर धुन-धुन रोती है माता
इतने क्रूर न बनो विधाता
परिर्वतन की आँधी आये, रामराज्य का ध्वज फहराये
मन तो कब के मरे, टिकेंगे अब ये शीर्ण शरीर नहीं