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काल-अश्व / उपेन्द्र कुमार

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सप्त वल्गाओं से
नियन्त्रित
दौड़ते रहते हैं सतत्
न थकते
न जीर्ण होते
अक्षय बलवान
हैं काल अश्व
बेगवान।

घूमते रहते हैं
सर्वत्र समस्त भुवनों में
चकित करते हुए
अनुष्ठानों को
ब्राह्मणों और प्राणियों को
अदृश्य देवताओं को
आगामी भविष्य को
अभिमंत्रित करते हुए

यह काल
अपनी सात नाभियों की धुरी में
अमृत कलश लिए देखता है-
प्रमाण स्वरूप
रचने और रचे जाने के बीच
अपने इन घोडों, बछेड़ों को
जो अबोध निरन्तरता में
विद्युत गति से
दीखते हैं दौड़ते
चतुर्दिक
रौंदते गुजरते हैं
काल-अश्व
अतीत, वर्तमान और भविष्य को
अंकित करते
अपने पदचिह्नों को
प्रतिचिह्न के रूप में
चित्रित करते
निरन्तर....।

हो नहीं पाता
सवार इन पर कोई
न मरा हुआ इतिहास
और न हर क्षण मरता वर्तमान

प्रयत्नशील
आरूढ़ हो पाने की कामना में
जुड़ते हैं
उम्मीदों भरे
हाथ हमारे
आकाश की ओर
प्रार्थना की मुद्रा में
जब भी होती है
फसल भरपूर
होते हैं पीले हाथ बिटिया के
हरी होती है कोख
लाता है डाकिया मनीऑर्डर
लौटते हैं परदेशी
सुलझ जाते हैं विवाद
और हमक
अश्वारोहण की प्रतीक्षा में
झेलने लगते हैं वर्तमान

परन्तु सहसा बगल से
निकल दौड़ता
चलता जाता है एक और
अश्व
और उस पर
सवार हैं
इच्छाएँ
सभी रंगीन
कामनाएँ
सवार हैं सदियों से
तमाम अश्वों पर
चारों ओर से
अब वैसा ही
दीख रहा है
काल अश्व का
गुज़रना।
अवसाद के अन्धेरे में
नहीं होता कोई विजेता
वहाँ अपनी पराजय
और ध्वंस के मलबे में
कोई जान भी नहीं पाता
कि कर गया कब
अंकित काल-अश्व
टापों के चिह्न
समय सीने पर