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काल चक्र / गीता शर्मा बित्थारिया
Kavita Kosh से
जब भी कोई
ताशाशाह
पनपता है
वो कुचल
देना चाहता है
पूरी मानवता को
अपने पैरों तले
पूरी शक्ति से
अपने आतंक से
बन जाता है
निरंकुश अधिपति
कुछ काल अवधि
को छा जाते है
भय के बादल
वो समझता है
की उसने सूरज
निगल लिया
अंधेरा चीर
मानवता के
विजयी जयघोष
के साथ
घूमता है काल चक्र
नयी सुबह के साथ
सत्यमेव जयते में
दृढ़ होता विश्वास
आतंक की मृत्यु
के साथ उनके
जलते हुये पुतले
उखाड़ दिए गए बुत
बंकरो में रेंगते हुए शरीर
सुनिश्चित करते है
मानवीय मूल्यों की
पुर्नस्थापना का
गौरव गान