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काल बैरी मारग्यो / मनोज चारण 'कुमार'

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खै-खै करती आँधी चालै सिणिया उडै खेतां मैं,
बायेडा बीज जद उगै कोनी दबज्या सूखी रेता मैं,
जेठ-साढ़ जद सुखो निकलै, सावण मैं छांट पडै कोनी,
भरयो भादवो निकलै खाली, क्यूं बावै कोई खेतां नै।

परको बाजार मूकण लाग्यो, गंवार की कोठी होगी खाली,
धीणोड़ी नै के देस्या, अब बोलण लागी घर आळी,
तू क्यूं चिंता करै बावळी, सांवळ सेठ भूल्यो कोनी,
सावणी तो दी कोनी, पण हाड़यां मैं धरती करसी आली।

चौधरी जद धीर बंधायों, टप-टप आंख्या बैवण लागी,
चौधरी जद पूछ्यो तो, चौधराणी कैवण लागी,
सावणी तो निपजी कोनी, हाड़यां को अब के बेरो लागै,
गोदया आलो मरज्या तो पेट आलै की आस कठे लागै।

चिंता की लकीरा चौधरी कै मुंडे पर दिखण लागी,
परस्युं दिनूगे की बाता, बिनै याद आवण लागी,
सैर आलो सेठ आयो बो रिपियाँ को तकादो करबा लाग्यो,
चौधरी सोच्यो जे करजो न चुकायो कुड़की तो आती लागी।

बोल्यो जाटणी आसोजाँ का मोती तो खिंडता लागै,
दिवाळी आगी जाटणी, चिणा हाथाऊँ जाता लागै,
काती-मिंगसर बीतग्या अर मावठ पड़गी खाटै मैं,
झटको तो सावणी देगी, हाड़यां लेगी चौधरी नै घाटै मैं।

भगवान भरोसै करेड़ी खेती अबकै तो रुळगी लागै,
किसाना री ज़िंदगी दूभर, ओ अन्नदाता आपणो लागै,
किसाना री साय करण रो संकल्प ल्यो म्हारै सागै,
जै जवान अर जै किसान रो नारो लगावो म्हारै सागै।।