काल / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
वज्रपाणि महाविकराल काल,
उग्र उद्गार तुम लावा की चमिनी के!
छोड़ रहे मर्मदाही गैसों को विद्युत-स्फुल्लिंगों में!
दहनशील विस्फोटक लपटें बन!
ज्वाला भड़काते तुम धधक कर-
भीषण धड़ाकों से, धूम उद्गारों से,
काले गुब्बारों से नभ-तल को आवृत कर!
वायुभार को हिला,
कर देते कम्पित तुम घोर वज्रनाद से!
तुम वह अनादि वृक्ष, रहता जो सदा हरा!
अन्तहीन जिसकी शाखाओं में,
गुम्फित हैं युग-युग की गाथाएँ।
तना पाल त्रिभुवन के भाल पर तुम्हारा काल!
सुमुख, दुर्मुख, अमुख तुम भीममुख,
काटता है आड़े तुम्हारा प्रकाश-पथ-
तिरछी रेखाओं में जीवन के चित्र को,
चीर व्योममण्डल को गिरते हुए तारे-से!
धमक तुम्हारी जान पड़ती भूमिकम्प-सी,
कोसों तक सुनाई देता जिसका धड़ाका हैं
अस्थिर वायुमण्डल के भीषण परिणाम तुम,
नाचते-से रुद्रपंख चक्र-प्रतिचक्रवात;
चलते-से रहते तुम चक्र में ही-
कल्पित कर इडावत्सर, परिवत्सर, संवत्सर।
दुर्लंघ्य, दुर्धर्ष, दुष्प्रकम्प, दुष्काल काल तुम।
महादन्त, महावक्ष, महाक्रोध,
प्राणियों के उत्पादक महाबीज।
गूढ़तर अर्थवाले अग्निदीप्त महामन्त्र।
ध्वनि की तरंगों में परावर्त्तन-आवर्त्तन,
अभिलिखित वर्णाक्षर
नित्यघटित ध्रुव विधान सृष्टि के।
लहराते सागर प्रवाहसम दुर्निव
बैठे हैं जरा-मृत्यु ग्राहरूप जिसमें।
भूमि, वायु, तेज, जल, गगन के
गन्ध-स्पर्श, रूप, रस, शब्द गुण।
शीत कटिबन्धों में उच्च भार, ताप के प्रसार तुम।
महारौद्र, वेगवान हरीकेन, टार्नेडो
उदित हुए धूमकेतु अम्बर में।
प्रथम अंक जीवन और मृत्यु के।
क्रम आगे-पीछे के, चक्र-परिवर्त्तन ब्रह्माण्डों के।
पड़े हुए लोक के गले में तक्षक बन!
कुछ भी नहीं तुम से पर,
प्राणवन्त केन्द्र से परिधि तक।
गुथा हुआ तुम में ही सारा जग,
छन्दमयी सृष्टि का वितान कर।
दिक्भाव से अतीत गुहानिहित शक्तित्त्व,
छन्दित जिससे अनन्त, मर्त्यभूत अमृतप्राण।
रुकते नहीं पल-भर भी, लेते दबोच तुम-
काम पूरा होने के पहले ही।
जैसे कर देती हवा छिन्न-भिन्न
बादलों को बार-बार उड़ा कर।
वैसे तुम झोंक देते प्राणियों को-
घोर से भी घोरतर मृत्युरूप ज्वाला में।
तृप्त नहीं होती जैसे आहुति से अग्नि कभी,
गगनाकार सिन्धु होता तृप्त नहीं नदियों से,
तृप्ति नहीं होती तुम्हें वैसे ही-
त्रिभुवन के प्राणियों को अपने में लीन कर।
कम्पित तुम्हारे आघातों के वेग से-
क्षोभ प्रकट होता महासागर में।
तव इतिवृत्त के अनन्त महाभारत में
द्वन्द्वों की होती पुनरावृत्ति सदा।
धूम-धूम होता है, विस्फुलिंग विस्फुलिंग।
कर्मों का अन्तर्भाव मन्त्रों में।
चलते तुम्हारे ही वृत्तों के केन्द्र पर
शनि, मंगल, यूरेनस, नेपच्यून।
सर्पाकार बिजली चमकती है तुमसे ही,
भरता है नभमण्डल मेघों को गर्भ में।
तुमको ही पाकर अरुण का उदय होता
चन्द्रमा की प्रभा को छीन कर,
स्वर्णचक्र के समान कान्तिकान्त दीप्तिमन्त
प्राची के अम्बर में लालिमा-सी फैला कर।
सर्वकारणकारण तुम वर्तमान, भूत औ’ भविष्य के,
सर्वभूतसमुच्छेद आदिमध्य अन्तरहित।
सर्वहर मंगलमय पालक तुम।
पीते रुद्ररूप में हो जलमय हविष्य को
सागर में बड़वालन नाम से।
एक ही तुम्हारे प्रलयंकर त्रिशूल से
होते अनेक तीक्ष्ण शूल प्रकट।
लाल-लाल लपटों वाले पन्नग से महाकाल,
सुनता मैं तुम्हारी गर्जना के तुमुल नाद।
क्षण में ही आँधी के उखाड़े हुए वृक्ष-से,
माता पृथिवी के वक्ष पर गिरने के पहले।
करता मैं निःशंक होकर चिन्ता-जाल तज
तुम्हारी भुजाओं का आलिंगन स्वीकार।
उड़ते हुए मधुलोभी भ्रमर जैसे
बैठ जाते फूले हुए वृक्ष पर,
वैसे ही घुसेंगे मेरे देह-गेह में-
तुम्हारे स्वर्णपंख पैने पानीदार बाण!
पर खींचती रहेगी तुम्हारे पंख पर
एक अमिट लकीर-सी,
चेतन आत्मा के सम्य की रोमांचक यात्रा-कथा!