भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काश! कि / असंगघोष
Kavita Kosh से
हर ‘वार-तैवार’ से
कुछ दिन पहले आकर
मोहल्ले में
ढोली
घर-घर ढोल बजाता
हम सब नन्हें बच्चे
जान जाते
कोई त्यौहार आ रहा है
नजदीक
खुश हो नाचने लगते
अब गुड़ डला मीठा दलिया खाने मिलेगा
दौड़ कर खुशी-खुशी
माँ के पास जाते
अनाज दो माँ!
मैं बारेठ को दूँगा,
दस पैसा निकाल
माँ कहती
जा-
बारेठ को पैसा दे आ
वह
हमसे अनाज नहीं लेगा
ढोली!
ढोल बजा
ऊँची जात वाले घरों से
अखिणा लेता
हमारे घरों से
नगद पैसा माँगता
कह देता
तुम्हारा अखिणा
कौन खाएगा?
मोहल्ले में सभी
खरीदते अनाज
एक ही गल्ला व्यापारी से
फिर
हमारा छुआ अनाज जहर तो नहीं था?
काश!
हमारे छूने से ही
सच में अनाज जहर हो जाता
तो हम क्या न करते?
क्या आज कम होते?