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काश! मैं लिख पाती / नीरजा हेमेन्द्र

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आज मेरे शब्द भी
मेरी हथेलियों से
फिसलते जा रहे हैं
नीले आसमान में उड़ते
श्वेत बादलों के पीछे कहीं
गुम होते जा रहे हैं... न जाने कहाँ?
वो शब्द
जिन्हे मैं निकाल लायी थी
हृदय से
टाँकती चली जा रही थी
प्रेम के पन्नों पर
शब्द... नेह के... भावनाओं के...
शब्द... देहबन्ध की सीमाओं से मुक्त
शब्द... नर्म दूब पर पड़ी ओस के बूदों जैसे
जंगल में बेलौस घूमती हिरनी जैसे
शब्द झाड़ियों में छुपे खरगोश जैसे... धवल... निर्लिप्त...
सारे शब्द मेरे थे... अपने थे...
शब्द लेने लगे हैं रूप तुम्हारा
दुनियावी, दैहिक, अपरिचित...
किन्तु ज़िद है मेरी
दूर जाते शब्दों को मैं लाऊँगी वापस
लिखूँगी प्रेम की परिभाशा
सृजित कर लूँगी तुम्हें... बदलती ऋतुओं में...
हवाओं के गीतों में...
झरने के संगीत में
जाऊँगी नीले आसमान में
उड़ते बादलों के पास
तुम्हारे साथ
ले आऊँगी
गुम होते उन शब्दों कों
लिखूँगी सदियों से व्यक्त होते
वही ढाई अक्षर... प्रेम के
यह ज़िद है मेरी
काश! मैं लिख पाती
एक और ढाई अक्षर... घृणा...